धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
विशाल वसुन्धरा के निरवधि काल में सहस्रों महापुरुष उत्पन्न हुए। अपनी यशचन्द्रिका से विघ्न को उन्होंने आलोकित भी किया। किन्तु उनसे भी बढ़कर दूसरा सूर्यवत् उत्पन्न हुआ और लोग भूल गये यशचन्द्र को। नवचन्द्र के प्रखरोदय में वह अस्त हो गया। पर यह ‘यशचन्द्र’ सर्वथा अलौकिक है। अनन्त काल तक होने वाले प्रकाशपुञ्ज ग्रह आते-जाते विलीन होते रहे, पर इसकी यश-प्रभा अक्षुण्ण रहेगी। स्वयं अनन्तकोटि ब्रहाण्डनायक महिमान्वित की छवि का हरण नहीं कर सकते, फिर अन्य मानवों की तो कथा ही क्या? भगवान् राम का चरित्र पूर्ण मानवता का प्रतीक है। उनके चरित्र को पढ़ लेने पर अन्य श्रेष्ठतम चरित्र वाले महापुरुषों का चरित्र फीका जान पड़ता है। पर ‘भरत-चरित्र’ – वह तो चौगुना चमक उठता है। इतना ही नहीं, रामचरित्र के बाद भरत-चरित्र का अध्ययन करने पर उनके प्रति अगाध श्रद्धा बढ़ती ही जाती है।
महानुभावों ने विकास-ह्रास को एक अपरिवर्तनीय नियम माना है। लौकिक सूर्य-चन्द्र भी इस नियम के अपवाद नहीं है। किन्तु यहाँ तो बात ही दूसरी है। खोजने पर भी इस चरित्र में ह्रास या पतन दृष्टिगोचर नहीं होता।
चन्द्रमा अपनी सुशीतल किरणों से श्रम हरण करता है। कुमुद चकोर को आनन्द और रस का दान देता है। फिर भी वह सबके लिए सुखद नहीं है। चक्रवाक तो सूख ही जाता है, क्योंकि इसके आगमन से प्रिय का वियोग होता है। चन्द्रमा का उदय उसके हृदय को उत्तम कर देता है। पर यहाँ –
कोक तिलोक प्रीति अति करही।
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