धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भरतपयोधि के मन्थन से न केवल प्रेमामृत ही व्यक्त हुआ हो ऐसी बात नहीं। समुद्र-मन्थन से तो चौदह रत्न मात्र ही उत्पन्न हुए थे, अतः उनका नाम बता देना सरल है। किन्तु इस गंभीर पयोधि से श्री भरत के गुणगण-रूप अनन्त रत्नों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिए उनकी गणना असम्भव मानकर महाकवि मौन हो गये। यत्र-तत्र उन्होंने अन्य रत्नों की भी चर्चा की है। प्रस्तुत प्रसंग में श्री भरद्वाज के मुख से एक रत्न के गुणों का गान हुआ – वह है श्री भरत का ‘यशचन्द्र’। कवि के ही शब्दों में उसकी विशेषता पढ़िए –
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा।
रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।।
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना।
छटिहि न जग नभ दिन दिन दूना।।
कोक तिलोक प्रीति इति करही।
प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू।
ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम पियूषा।
गुरु अवमान दोष नहीं दूषा।।
राम भगत अब अमियँ अघाहूँ।
कीन्हेहु सुलभ सुधा बासुधहूँ।।
यह दिव्य सुधांशु तो भक्तों का जीवन-धन है। वे भक्त जिनके लिए महाकवि ने कुमुद और चकोर की उपमा प्रदान की है। दोनों उपमाएँ सम्भवतः भक्तों की दो श्रेणी को लक्ष्य में रखकर दी गयी हैं।
1. मोरे प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी।
2. बालक शिशु सम दास अमानी।।
ज्ञानी भक्त और प्रेमी भक्त। कुमुद ज्ञानी का प्रतीक है। जल में निर्लेप, मौन, शान्त रहता है। पर चकोर पक्षी है वह (विशेष पक्षवाला) नहीं है। मिलने की आकुल आकांक्षा उसके हृदय को सदा उद्वेलित किए रहती है और इसीलिए वह अग्नि तक भक्षण कर लेता है। किसी ने पूछा यह क्या? सहृदय कवि ने उत्तर दिया – ‘चन्द्रमा का यह स्नेही उससे मिलना चाहता है, किन्तु विवश है। अन्त में उसने एक उपाय सोचा। भगवान् भूतभावन शिव अपने भाल पर चन्द्र को धारण करते हैं, यदि किसी प्रकार उनके भाल तक पहुँच जाऊँ। सोचा रुद्र अपने भाल पर चिताभस्म का तिलक करते हैं, तो भस्म बनकर ही प्यारे से मिलूँ।’ ऐसा है वह सर्वत्यागी चकोर।
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