धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
0 |
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
तीर्थराज प्रयाग की पावन भूमि भी भरत-रूप नवप्रयाग के संस्पर्श से धन्य हो गई। साधना की इस पुनीत स्थली में रहने वाले चतुर आश्रमी भी मूर्ति के दर्शन से कृतकृत्य हो गए। सभी को लगा कि जैसे भरत के रूप में उनका चरम आदर्श ही घनीभूत हो रहा हो।
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा।।
यह साधारण बात न थी। क्योंकि भिन्न-भिन्न आश्रमों की मर्यादाएँ पृथक् हैं, अतः कोई ऐसा पात्र प्राप्त होना असंभव ही है, जो सभी के आदर्शों का समन्वय प्रस्तुत कर सके। किन्तु इस असाध्य साधन की क्षमता भरत-चरित्र में है। ब्रह्मचारी का अविचल व्रत, गृहस्थ की कर्त्तव्यपरायणता, वाणप्रस्थी का तप और संन्यासी का सर्वत्याग सबको उनके चरित्र में एक साथ देखा जा सकता है। साधना और सिद्धि का ऐसा एकत्रीकरण किसी भी अन्य पात्र में असंभव है। लक्ष्मण के द्वारा भक्ति के स्वरूप के विषय में प्रश्न किए जाने पर प्रभु ने जिस साधन-पद्धति का उपदेश दिया, वह वस्तुतः भरत में ही चरितार्थ होता है।
तेहिं कर फल पुनि विषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
राघवेन्द्र कथित साधन प्रणाली को श्री भरत के जीवन में देखिए!
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।।
मागहिं हृदय महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई।।
कर्मकाण्ड का छोटा-सा-छोटा कार्य भी उनके द्वारा उपेक्षित नहीं हुआ है। उनमें धार्मिकता के साथ प्रेम का अद्भुत समन्वय है। साधक के लिए क्रिया कलाप कितने आवश्यक हैं, यह विज्ञों से छिपा नहीं। क्रियाकलाप उसका लक्ष्य न होते हुए भी आलस्य प्रमाद को दूर रखने का अमोघ अस्त्र है। भरत-चरित्र को आदर्श मानने वाला साधक कभी च्युत नहीं हो सकता। ‘प्रेम’ के नाम पर उच्छृंखलता और श्रुतिविरोध का अवकाश नहीं। इसीलिए कविकुल चूड़ामणि ने ‘कठिन कलिकाल’ को ही अपना आराध्य और अवलम्ब स्वीकार किया।
|