धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष।
तुलसी प्रेम पयोधि को ताते नाप न जोख।।
हाँ तो त्रिवेणी से माँग रहा है – ऐसा प्रेमी जो स्वयं प्रेम का मूर्तिमान स्वरूप है। ‘प्रेम’, ‘प्रेम’ माँग रहा है। त्रिवेणी क्या तुममें इतना प्रेम है, जो इसे दे सको? नहीं, असम्भव। तब फिर तरंगायित होकर क्या कह रही हो? तुम अपनी तरंगमयी भुजाओं से चरणस्पर्श करना चाहती हो? इस भिखारी के चरणकमलों को पखारना चाहती हो? धन्य करना चाहती हो अपने को? क्या इस स्तुति से लज्जित होकर तुम पानी-पानी हुई जा रही हो? पर बोलो अवश्य – देखो हाथ पसारे बड़ी उत्सुकता से वह महाव्रती तुमसे माँग रहा है, तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। देने का साहस नहीं तो स्तुति ही सही –
बादि गलादि करहु मन माहीं। तुम सम रामहिं कोउ प्रिय नाहीं।।
अच्छा ही किया जो तुमने स्पष्ट कर दिया ‘तुम सम रामहिं कोउ प्रिय नाहीं।’ तुम्हें अच्छी तरह ज्ञात है, जब प्रभु तुम्हारे तट पर यमुना का श्याम जल देखकर भरत की स्मृति से व्यथित हो रो पड़े थे। उन आँसुओं को अपने वक्षस्थल में समेटे उस भाव का अध्ययन करके भी उन दो बूँद आँसुओं की थाह का पता तुम्हें न लगा सका था। अवश्य ही तुम्हें आश्चर्य हुआ होगा उस दिन मतिधीर की इस अधीरता पर। आज तो तुम्हें ज्ञात हो गया न, प्रभु क्यों इतने व्याकुल रहते हैं, अपने भरत के लिए। त्रिवेणी! युगों-युगों तक लोगों को पाप-ताप धोने-रूप तपस्या का फल तुम्हें आज प्राप्त हुआ – ‘भरत दरश-स्पर्श के रूप में।’
स्वार्थी देवताओं! अन्त में तुम भी इस प्रेमी के समक्ष झुके हो। उचित तो था कि जब उस महत्प्रेमी ने प्रभु के पास जाने का निर्णय किया था, तभी से तुम उनके स्वागत-सत्कार में संलग्न हो जाते, पर तुम्हारा स्वार्थ इसमें बाधक था।
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