धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अहा! श्याम रंग में रंगी हुई यमुना और गौरांगी गंगा युगल-सरकार राम-सीता का स्मरण कराने लगीं। यह भरत के मुख से तो प्रकट होगा नहीं, पर देखिए न उनके शरीर की पुलकावली – बिना बताए हुए ही सब कुछ कहे दे रही है।
युगल कर-कमल जुड़ गए और भरत भिखारी बनकर याचना करने लगे। माँगते तो सभी हैं। त्रिवेणी ने दिया भी बहुतों को होगा – धन, धाम, काम, सन्तान, धर्म, मोक्ष सब। पर त्रिवेणी के सामने आज एक अनोखा भिखारी खड़ा है, जिसे यह सब कुछ न चाहिए। सच कहना तीर्थराज क्या तुम्हें कभी ऐसा भिक्षुक मिला है। रघुवंशकुलोत्पन्न दाता होता है, भिक्षुक नहीं। पर यह तो स्वयं ही ‘मागउँ भीख त्यागि निज धरमू’ का पाठ पढ़ाते हुए तुम्हारी स्तुति कर रहा है, क्या?
जनम जनम रति राम पद यह बरदानि न आन।।
‘रति राम पद’ का अर्थ भी सुन लीजिए। वह प्रेम सर्वथा वैयक्तिक और विलक्षण है। संसार से तो सभी प्रेम-पथ पथिक अपने प्रेम को छिपाना चाहते हैं, पर यह तो उनसे भी आगे हैं।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
कैसा अद्भुत भाव है। ‘राम मुझे कुटिल समझें।’ खोज डालिए विश्व के इतिहास को इस अद्भुत भाव वाला ढूँढ़े न मिलेगा। लोगों ने प्रेम किया और खूब किया पर प्रियतम न मिला, तो मुँह से निकल ही पड़ा – ‘निठुर! हम तो तेरे लिए सब कुछ छोड़कर प्राण देते हैं, पर एक तू है जो हमें तड़पते देखकर मुस्कराता है।’ पर पूछे कोई भरत से तो उत्तर मिलेगा – ‘आपने त्याग, प्रेम दोनों ही किया है। पर यहाँ न तो त्याग ही दीखता है और न प्रेम। त्याग करने चला तो अपना कुछ दीखा ही नहीं जिसका त्याग करता – सब उसका ही तो था। प्रेम का तो स्पर्श भी नहीं है इस कुलिश कठोर हृदय में। तब शिकवा शिकायत का स्थान कहाँ?’
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