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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


बुझि मित्र अरि मध्य गति तब तस करब बहोरि।

भेंट के लिए नाना प्रकार की वस्तुएँ उन्होंने मँगाई – इसे भेंट कह लें अथवा परीक्षा –

कन्द मूल फल खग मृग माँगे।
मीठ पान पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन आने।।

(1) कन्द, मूल, फल, (2) खग-मृग, (3) मीन। सात्त्विक, राजस, तामस। तीन प्रकार की वस्तुओं का अभिप्राय है कि व्यक्ति अपनी भावनानुरूप ही भेंट पहले ग्रहण करता है। यदि मत्स्य की ओर पहले दृष्टि गई, तो निश्चित रूप से वे राम-विरोधी हैं। यह राजस “खग-मृग” दृष्टिगत हो, तो केवल दिखावे के लिए जा रहे हैं। हाँ, कन्द, मूल, फल उसके सद्भाव का सूचक समझा जायगा। इस प्रकार भेंट और परीक्षा के आयोजन के साथ निषादराज श्री भरत से मिलने के लिए चले, त्रिगुणातीत भरत की दृष्टि इस वस्तुओं पर कैसे जाती? जिसे अयोध्या का राज्य न लुभा सका, उसे ये तुच्छ वस्तुएँ आकृष्ट कर लें, भला ये कैसे सम्भव था। उनकी पवित्र प्रेममयी दृष्टि को पड़ी राम-सखा पर और गुरुदेव से प्रश्न हुआ – कौन है यह महाभाग? उत्तर मिला – “राम-सखा गुह” और दूसरे ही क्षण श्री भरत रथ छोड़कर दौड़ पड़ते हैं उनसे मिलने के लिए। आज प्रेम ने मर्यादा का बाँध तोड़ दिया –

राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।।
दो. – करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ।।

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