धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
राम-प्रेमी की भला क्या जाति। ‘साहिब को गोत गौत होत है गुलाम को’ फिर यह तो राम-सखा हैं, जिन्हें हृदय से लगाकर प्रभु ने अपने को धन्य माना। श्री भरत और निषाद का यह मिलन अभूतपूर्व था और गुरु वशिष्ठ एक बार इस प्रेम-मूर्ति के सामने पराजित हुए। शिष्य बाजी मार ले गया। ब्रह्मर्षि में ब्राह्मणत्व के संस्कार जागृत थे, इसलिए वे राम-सखा के पावनालिंगन से वंचित ही रहे। तब सर्वथा एक नया दृष्टान्त सामने आया और गुरु को शिष्य का अनुगामी बनना पड़ा। धन्य है वह गुरु जिसे ऐसा शिष्य प्राप्त हो (चित्रकूट में यह बात स्पष्ट हो जाती है)।
लोगों के विश्रामादि की व्यवस्था करके श्री भरत ‘राम-सखा’ से वह स्थान दिखाने की प्रार्थना करते हैं, जहाँ सिंसुपा की पुनीत छाया में राघवेन्द्र ने विश्राम किया था। राम-सखा के हाथों में हाथ दिए चलते देख महाकवि मुग्ध हो गये और उपमा देना चाहते हैं किन्तु ‘निरवधि गुन निरुपम पुरुष भरत भरत सम जानि’ और तब निरुपम के लिए मूर्तिमान ‘प्रेम’ की उपमा देकर सन्तुष्ट होते हैं।
उस मंगलमय तरु का छाया में अब भी कुस साथरी पूर्ववत् बिछी हुई है। ‘राम-सखा’ ने उसे सुरक्षित रख छोड़ा है – अपने प्रियतम सखा और आराध्य की विश्राम-स्थली समझकर, किंवा प्रभु ने ही भैया भरत की ‘नेकु नयन मन जरनि जुड़ाई’ के लिए इसे यहाँ सुरक्षित रखने की प्रेरणा निषाद के मन में की है। अहा ! वह कुस साथरी नहीं प्रेमी के लिए साक्षात् प्रभु का ही रूप है। जहाँ प्रभु के चरण-कमल पड़े हैं, वह स्थान समस्त तीर्थों से बढ़कर पावन है।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।
और यह क्या चमक रहा है स्वर्ण-बिन्दुओं-जैसा। हाँ! कनक-बिन्दु ही तो है। अच्छा तो ये श्री किशोरी जी ते आभूषणों के ही अंग जान पड़ते हैं। पर यहाँ क्यों रह गये भला ये? अवध से चलते समय तो सभी आभूषणों ने, नूपुरों को अपना प्रतिनिधि बनाकर श्री किशोरी से प्रार्थना की थी।
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