धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़े भागि असि पाइय मीचू।।
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरे। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरे।।
यह निषाद के हृदय की पुकार थी, जो शत-शत कण्ठों से जयध्वनि बनकर फूट पड़ी। उत्साह से भरे हुए निषादों का समूह आज अपने भोथरे अस्त्रों को लेकर युद्ध के लिए प्रस्तुत हो गया। उसकी ढाल भी प्रभु-चरणों की पनहीं। धन्य है सखा निषाद तुम्हारे स्नेह को! तुम्हें ‘सखा’ पुकारकर प्रभु ने उचित ही किया। तुम सचमुच ही लोक-रक्षक राम की रक्षा कर सकते हो। क्या तुम्हारे इस देश के समक्ष काल भी अपना यमदण्ड लेकर आ सकता है? क्या तुम्हारी इस ढाल से टकरा कर उसका दण्ड चूर न हो जायगा? तुम अपराजित हो।
पर सखा! जो सामने आ रहा है उससे युद्ध कर सकोगे क्या? जानते हो उसके नाम-श्रवण मात्र से प्रभु के हाथ के अस्त्र गिर जाते हैं। धीर अधीर हो उठते हैं। आज यह अनोखा ही युद्ध होगा। क्योंकि दोनों ओर की अस्त्र और ढाल सब एक ही है। तुम्हें भरोसा है प्रभु-पनहीं का और उधर भी यही पुकार है। “मोरे सरण रामहिं की पनहीं।” तब कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इसे बताना क्या संभव होता?
पर अन्त में बँधना पड़ेगा तुम्हें भरत की भुजा के बन्धनों में। कैसी मधु होगी वह पराजय! प्रेम का रस तो विजय में नहीं, पराजय में ही है।
पर अभी तो निषाद ने युद्ध-वाद्य बजाने की आज्ञा दे ही दी। और तभी छींक हुई और चौंक पड़े सभी निषाद। वृद्ध ग्रामीण ने बताया इसका फल अच्छा है युद्ध नहीं होगा। भक्त सावधान हुआ। कुछ पश्चात्ताप भी हुआ। ठीक ही तो है भरत के भाव का पता किए बिना यह कार्य अविवेक मूलक ही होने जा रहा था। भेंट सजाने की आज्ञा दी गई, क्योंकि अभी भी वे सजग थे। भरत को समझना शेष था।
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