धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पियाइय वारुनी कहहु काह उपचार।।
अयोध्या में एक घटना हुई और राम को बन जाना पड़ा। महाराज श्री ने प्राण का परित्याग कर दिया। इस सब बातों को जैसे सहज रूप से स्वीकार कर लिया गया हो और अब एक ही प्रश्न था उनके समक्ष कि अयोध्या को राजा की आवश्यकता है और भरत को वह पद स्वीकार कर लेना चाहिए। इसमें जो औचित्य है जैसे उप पर ध्यान ही नहीं है। अपितु आवश्यकता के अनुकूल औचित्य की व्याख्या की जा रही थी। भरत ने जो प्रश्न उठाया, वह नया नहीं था। यह तो सार्वकालिक समस्या है। समाज सत्य की खोज नहीं करता; जब जैसी आवश्यकता उसके सामने आती है बस उसी की चिन्ता करता हुआ अतीत और भविष्य दोनों को ही भुला देता है और फिर परिणाम क्या होता है – इस प्रकार की कल्पित दवा बाद में स्वयं रोग बन जाती है। बेन को राजा बना दिया कि अराजकता के कारण समाज में अशान्ति न हो, पर बाद में क्या हुआ? बेन स्वयं ही अशान्ति और अराजकता का केन्द्र बन गया। बल्कि अराजकता से भी अधिक भयावह। क्योंकि वह राजा बनकर शासक का प्रमाण-पत्र पा लेता है। यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी को हम डाके के लिए प्रमाण-पत्र दे दें।
श्री भरत का प्रश्न था, “क्या यह सब इतना ही सीधा-सरल और प्रामाणिक है जितना गुरुदेव द्वारा सुनाया गया है। तब अयोध्या की यह उथल-पुथल, नागरिकों का पीड़ा भरा मुख, महाराज श्री का प्राणत्याग – यह क्यों? और जिस राजा का अधिकार ऐसी अशान्ति के बीच पनपे, जो इतनी पीड़ा से पाये हुए राज्य को अपना माने, क्या उससे यह आशा रखा जा सकती है कि वह लोगों को सुख-शान्ति देगा। किसी को सुरा पिलाकर हम फिर उससे बुद्धि संगत कार्य की आशा रख सकते हैं क्या?”
दो. – कैकेई सुअ कुटिल राम विमुख गत लाज।
तुम चाहत सुखु मोह बस मोहि से अधम के राज।।
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