धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
बहिरंग दृष्टि से तो भरत का भाषण कर्त्तव्य और धर्म की अपेक्षा भावना का प्रतीक ही अधिक प्रतीत होता है। लगता है गुरु वशिष्ठ की वाणी में धर्म और कर्त्तव्य की प्रेरणा थी, जिसे भावुकता के कारण भरत ने अस्वीकार कर दिया हो। पर यह निष्कर्ष भरत-चरित्र का वास्तविक स्वरूप न समझ पाने का ही परिणाम है। भूमिका में भी यह कहा जा चुका है कि भरत-चरित्र समन्वय का प्रतीक है। वहाँ भावना और कर्त्तव्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं अपितु पूरक हैं। वस्तुतः भावना और कर्त्तव्य का विरोध भी उपरले स्तर पर ही है।
भावना और कर्त्तव्य के विरोध का तात्पर्य क्या हुआ – मन और बुद्धि का विरोध। मान लीजिए एक व्यक्ति भावना को बलात् दबाकर बलात् कर्त्तव्य में स्थिर होता है। अब हम चाहे उसकी जितनी सराहना करें, तथ्य यही है कि ऐसे व्यक्ति के जीवन में अन्तर्द्वन्द्व तो स्वीकार करना ही होगा। अब यह तो रस्साकसी जैसी बात हुई, जिसमें कभी एक जीतता है, तो कभी दूसरा। सच तो यह है कि कर्त्तव्य की मुख्य प्रेरक शक्ति तो भावना ही है। अकेला कर्त्तव्य भावना को उदित नहीं कर सकता, पर भावना कर्त्तव्य को अपनी शक्ति का दान देकर उसे रसमयी और पूर्ण बना सकती है। श्री भरत का जीवन इस प्रणाली का ज्वलन्त दृष्टान्त है।
गुरु वशिष्ठ ने जो कुछ कहा श्री भरत ने उसका कोई खण्डन किया हो, ऐसी बात नहीं। यह तो उनके चरित्र की अपनी विशेषता है। प्रारम्भ में उन्होंने यही कहा –
मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु नीका। प्रजा सचिव सम्मत सबहीं का।।
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अबसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा।।
फिर भी एक सवाल था – जिसका उत्तर कोई न दे सका। रोग के लक्षण की ही चिकित्सा होनी चाहिए अथवा उसको भुलाये रखने का प्रयास होना चाहिए, या उसके मूल कारण का भी निवारण किया जाना चाहिए।
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