धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
ब्रह्मा के पुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की वाणी का क्या कहना! उसमें विवेक था, धर्म था, शास्त्र और पुराणों का समन्वय था। उसका उत्तर देना क्या सरल कार्य था? पर भरत भी तो भरत ही थे। वाणी के आने की राहें भी अलग-अलग हैं। कहीं तो वह केवल कण्ठ से जीभ में आ जाती है और लोग ऊब उठते हैं कि यह क्या भोंड़ा रूप है और कहीं वह मस्तिष्क से सज-संवर कर, सब कुछ साँचे में ढला, सुनियोजित श्रृंगार किए आकर चकित कर देती है कि लोग देखते रह जायें। पर उसके आने का एक मार्ग और है, जो अनाहूत अतिथि की भाँति जाने कब हृदय से आकर कण्ठ से व्यक्त हो जाती है। न वहाँ सज्जा है और न ही श्रृंगार आकर्षक होता है, पर हम जानते हैं। जैसे वह कमी को ढकने के लिए ही बनाया गया हो। पर हृदय की वह मोहक रूपसी जिसका सौन्दर्य पूर्ण है, वह इन बाह्य उपकरणों की उपेक्षा नहीं रखती। वह आती है तो जैसे व्यक्ति को देह की सीमा से ऊपर उठाकर विदेह बना देती है। प्रेमाश्रुओं से भींगी वह वाणी आकर हमारे मन-प्राणों को प्रेम-रस से भिगो जाती है। जिसे सुनकर जैसे हम धूल पोंछकर ‘स्व’ को पालते हैं। गुरुदेव का मस्तिष्क पूर्ण समष्टि बुद्धि के देवता से जुड़ा हुआ है। उनकी वाणी का श्रृंगार अनोखा है। पर भरत तो बुद्धि से नहीं, हृदय से बोलते हैं। वह हृदय जहाँ राम रहते हैं। उसे न शास्त्र का प्रमाण चाहिए, न पौराणिक संगति, वह तो मन की बात है – पर प्रामाणिक ऐसी कि जिसे सुनकर एक बार धर्म कह उठे कि आज ही मैंने अपने को सही अर्थों में जाना है। गुरुदेव ने भी प्रभावित किया था लोगों को – सब उनकी वाणी का समर्थन करने की भावना लेकर ही वहाँ आये हुए थे। पर यह क्या हुआ कि जैसे नदी में पूर आकर बहा ले जाय अपनी वेगवती धारा में मिट्टी के घरों को कि जितनी सुदृढ़ता पर गर्व रहा हो कि ये तो टूटने से रहे। भरत की वाणी व्यक्त हुई तो रह गई सारी योजना एक ओर। सिखाया गया पाठ ही जैसे भूल गया और लोग वह कहने लगे जो भरत की वाणी थी। या यों कहें कि भरत की वाणी से लक्ष-लक्ष नागरिकों का मूक हृदय बोल पड़ा। उस वाणी में क्या था? डूबे तो उसमें।
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