धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अवसि नरेस बचन फुर करहू।
पालहु प्रजा सोकु परिहरहू।।
सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू।
तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू।।
बेद बिदित संमत सबही का।
जेहि पितु देई सो पावइ टीका।।
करहु राजु परिहरहु गलानी।
मानहुँ मोर बचन हित जानी।।
सनि सख लहब राम बैदेही।
अनुचित कहब न पंडित केही।।
कौसल्यादि सकल महतारी।
तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारी।।
परम तुम्हार राम कर जानिहि।
सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि।।
सौंपेहु राजु राम के आएँ।
सेवा करेहु सनेह सुहाए।।
मंत्रियों तथा कौसल्यादि अम्बा द्वारा भी प्रस्ताव का समर्थन-अनुमोदन हुआ। पर यह सब सुनकर छलक आए भरत की आँखों में आँसू। यह सब क्या हो रहा है मेरे साथ? जैसे वे समझ ही न पा रहे हों कि ऐसा प्रस्ताव किया भी कैसे जा सकता है। व्याकुलता से हृदय मथ उठा और तब कण्ठ से जो वाक्य निकले, वही मानो धर्म की नई व्याख्या बन गये हों। “आँखों में आँसू और दोनों हाथ जुड़े हुए” – यह था भरत का चित्र जब वे बोलने को प्रस्तुत हुए –
भरतु कमल कर जोरि धीर धुरन्दर धीर धरि।
बचन अमियँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहिं।।
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