धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
जिस तर्क को शास्त्र के प्रमाणों से सज्जित किया है, वह उसमें कहीं प्राण है। कहा गया था कि “राजा ने राम को वन दिया और तुम्हें राज्य। राम ने आज्ञा का पालन किया और अब तुम्हें भी करना चाहिए।” धर्म का यह कैसा उपहास है? हाँ, मानता हूँ राजा ने राघवेन्द्र को वन जाने दिया पर उसके बाद पीड़ा और पश्चात्ताप में जिसने प्राण देकर अपनी भूल का प्रायश्चित्त किया हो, क्या सचमुच ही उस पुण्यलोक की सच्ची आकांक्षा यही थी। पर ठीक ही तो है, यह सब देख-सुनकर, सारी आपत्तियों के मूल में स्वयं को कारण समझ कर भी यदि मैं जीवित रहा, तो मुझ जैसे निष्ठुर व्यक्ति के लिए धर्म का रूप भी यही होना चाहिए। लोग समझते हैं पिता श्री ने केवल प्रभु के वियोग में प्राण-त्याग किया है। पर नहीं-नहीं, उन्होंने तो इससे दो भावों की रक्षा की। प्रेमपन की रक्षा के साथ उन्होंने सोचा होगा ऐसे व्यक्ति का मुख क्या देखना, जो रामचन्द्र के वन-गमन का कारण बना –
रायँ राम कहुँ कानन दीन्हा। बिछुरत गमन अमर पुर कीन्हा।।
मैं सठु सब अनरथ कर हेतु। बैठ बात सब सुनहूँ सचेतू।।
बिनु रघुवीर बिलोकि अवासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।
गुरुदेव ने प्रस्ताव में जो परिवर्धन किया था, उसकी सूक्ष्म त्रुटि को तो केवल भरत ही समझ पाए। महर्षि ने कहा था – “राम के आने पर राज्य समर्पित कर देना।” इस तरह उन्होंने लौकिक धर्म के साथ समर्पण धर्म को भी जोड़ देना चाहा था। और समर्पण है भी उत्कृष्ट धर्म। पर प्रेममूर्ति उससे कहीं आगे हैं। आलवन्दारस्तोत्र में यामुनाचार्य ने उसी मधुर भाव का संकेत किया है। “प्रभु मैंने सोचा कि समर्पण करूँ, पर समर्पण तो स्वयं ही की वस्तु का किया जाता है। जब” खोजता हूँ तब मुझे अपना कुछ दिखाई ही नहीं देता – अतः समर्पण का स्थान एक प्रश्न ने ले लिया है। “किन्तु समर्पयामि ते” तुम्हें क्या अर्पित करूँ।
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