लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

Like this Hindi book 0

भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


वस्तुतः इस प्रसंग पर विचार करने के लिए हमें उस संस्कारगत मान्यता से ऊपर उठने की चेष्टा करनी होगी, जिससे हम प्रत्येक घटना को बँधी-बँधाई धारणा से, एकांगी दृष्टि से देखने लग जाते हैं। माँ के समादरणीय पद की गरिमा को कौन अस्वीकार कर सकता है। “पर माँ को छोड़कर धर्म कुछ और भी है या माँ के प्रति हमारा कर्त्तव्यमात्र ही समग्र धर्म है?” वस्तुतः धर्म विराट के प्रति हमारे कर्त्तव्यों का निर्देशक है। वह समस्त कर्त्तव्यों का निर्देश विविध अंगों के परस्पर सम्बन्ध के रूप में ही करता है। कोई भी व्यक्ति कितना ही महान् क्यों न हो, वह विराट का स्थान नहीं ले सकता।

अतः जहाँ विराट का प्रश्न हो, व्यक्ति का त्याग करना ही पड़ता है। समग्र शरीर की रक्षा के लिए एक अंग को काटकर फेंका जा सकता है, भले ही वह अंग कितना भी प्रिय क्यों न हो। श्री भरत का माँ के प्रति रोष किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या अहं को लेकर नहीं है। वह तो उनकी दृष्टि में विराट का (राम विराट पुरुष हैं) ही अनादर है। और ऐसी परिस्थिति में उसे सह लेना धर्म के शव की ही रक्षा है, धर्म-प्राण की नहीं। भरत के इस कार्य की आलोचना का कारण ही है कि हम हर क्षण भरत की पुत्र के रूप में ही कल्पना करते हैं, जैसे वे भाई, सेवक, भक्त आदि कुछ हों ही नहीं। इसीलिए गोस्वामी जी श्री भरत के द्वारा इन शब्दों के प्रयुक्त किए जाने से पूर्व भरत के लिए पुत्र नहीं राजकुमार शब्द का प्रयोग करते हैं।

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाके छत जनु लाग अँगारू।।

वस्तुतः यह अयोध्या के राज प्रतिनिधि द्वारा प्रदत्त दण्ड है। मृत्युदण्ड से भी कठोर। अयोध्या में जो कुछ अनर्थ हुआ है, उसके मूल में दिखाई देती है कैकेयी और तब उन्हें दण्ड प्राप्त होता है। शास्त्रों ने अलग-अलग लोगों के लिए एक ही दण्ड के पृथक्-पृथक् रूप बनाये हैं। अपने गुरुजनों के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग ही मृत्यु-दण्ड है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book