धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।
और तब महारानी कैकेयी अपने कार्यों का आत्मश्लाघापूर्वक वर्णन करने लग जाती हैं। महाराज श्री की मृत्यु का समाचार सुनकर वे पीड़ा ले भरकर क्रान्त हो रुदन करने लग जाते हैं, पर राम वन-गमन का समाचार सुनते ही एक तीव्र जड़ता से स्तब्ध हो जाते हैं। “क्या यह जो सुन रहा हूँ यथार्थ है। मुझे राजा बनाने के लिये आराध्य राम को वन भेज दिया गया। पर यह सत्य है, इस पर विश्वास तो करना ही होगा।” और तब भरत जिन रोष और आवेग भरे शब्दों में माँ को फटकारते हैं, वह साधारणतया भरत के शील और स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल है। सत्य तो यह है कि वह भरत का पहला और अन्तिम रोष है। गोस्वामी जी के ही शब्दों में वह प्रहारात्मक पर आत्मग्लानि से भरी वाणी यह है –
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहिं भाँति कुल नासा।।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ काटि ते पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।
दो. – हंसबंस दशरथ जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।
जब ते कुमति कुमत जिय ठयऊ। खण्ड-खण्ड होइ हृदय न गयऊ।।
वर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा।।
जो हसि सो हसि मुँह मसि लाईं। आँखि ओट उठि बैठहि जाईं।।
शायद ही किसी माँ को अपने सुयोग्य और धर्मपारायण पुत्र से इससे अधिक कठोर शब्द सुनने को मिले हों। यह एक ऐसा प्रसंग है, जो अनेक लोगों की दृष्टि में भरत की महानता के अनुरूप नहीं है। क्या एक पुत्र को माँ के लिए ऐसे कठोर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए?
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