धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
रही इसके मूल में आन्तरिक सूत्रधार की बात, सो उसने भी यह सब जानकर ही तो होने दिया। श्री भरत का अन्तःकरण राम का आवास है। वहाँ राम की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं होता। अपितु ‘भरतहिं जानु राम पहिछाहीं’ की दृष्टि से तो भरत कुछ करते ही नहीं, सब राम करते हैं। समुद्र-मन्थन में अमृत से पूर्व हलाहल निकला, तो उसे अपने परम सुहृद् शिव को पिला दिया। स्वयं ले लिया लक्ष्मी और कौस्तुभ मणि को। अश्रद्धा से देखें तो सारा कार्य निन्दास्पद ही तो लगेगा। रोष में नारद ने कहा भी तो यही था –
असुर सुरा विष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट व्यवहारु।।
यद्यपि तथ्य यह नहीं था। वस्तुतः उन्हें तो यह ज्ञात था कि महाकाल को यह विष मार न सकेगा। पर संहार के देवता के विषय में यह भ्रान्ति थी कि वह कठोर हैं। पालक कोमल, संहारक कठोर सीधा तर्क था। विष्णु ने कहा, उसे पहचानो। वह तो हमारी अपेक्षा भी कोमल और निःस्वार्थ हैं।
जरत सकल सुरबृन्द बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मति मन्द को कृपालु संकर सरिस।।
भरत-समुद्र का मन्थन हुआ था प्रेमामृत के लिए और उसे पीकर सभी सुर साधु कृतकृत्य हो गये। पर वे तो साधारण पात्र थे। जिसके लिए हलाहल ही अमृत बन जाय, ऐसे शिव की भी तो अपेक्षा थी। जिनके लिए हम “कालकूट फलु दीन्ह अमी को” ऐसा कह सकें। भरत-समुद्र से प्रथम भाषण के रूप में जो हलाहल प्रकट हुआ, उसे पीकर अमर होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ कैकेयी अम्बा को। वस्तुतः राघवेन्द्र के पूर्ण प्रेम की उपलब्धि माँ को इस हलाह के बिना हो भी नहीं सकती थी। इसे अधिक स्पष्ट रूप में समझें। अन्य लोगों के समक्ष भरत का सद्व्यवहार, उनकी साधुता, कोमलता ही राम-प्रेम में बाधक बनी। पुत्र का ममत्व कहीं अवशिष्ट है। और भरत के द्वारा परित्यक्त होकर समाज के द्वारा बहिष्कृत होकर माँ सर्वतोभावेन केवल राम की बन गई। अतः मन्थन के प्रथम स्फोट के रूप में जो प्रकट हुआ वह भी प्रत्यक्ष रूप से कठोर गरल होते हुए भी वस्तुतः माँ को नीलकण्ठ बना कर प्रभु से अभिन्न बना देता है। भरत के द्वारा फटकारे जाने पर माँ के हृदय में जिस पश्चात्ताप का उदय होता है, यही संसार की ओर से समग्र विरति उत्पन्न करता है।
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