धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सरयू भी आज समुज्जवला हो गई। वियोग-कृश होने पर भी उसके अंग तरंग में नवोत्साह है। इठलाती हुई तट पर सुशोभित तरुवृन्द तृण समूह के ऊपर शीतल जल का छींटा मारकर कहती है – उठो उठो। तुमने सुना नहीं आज आ रहे हैं हमारे नयनाभिराम सौन्दर्य-सुधासागर कोटि काम-रमणीय राम। एक बार पुनः हम सबका भाग्य उदित हुआ है। यह तट उनकी मधुर वाणी से कूजित हो उठेगा। तृण! अहा तुम साधारण भाग्यवान नहीं। उनके अनावृत श्री चरणों को स्पर्श प्राप्त करोगे, और तरु! तुम भी उनके श्री अंगों को आलिंगन प्राप्त करके धन्य होओगे। एक बार हमारी धारा में वे लोकपावन प्रभु पुनः क्रीड़ा करेंगे। तरु झूम उठे – तृणों ने स्नान किया। हरित स्वच्छ होकर वे भी प्रतीक्षामग्न हैं। बस चारों ओर प्रतीक्षा – उस समय उनके नयन-चकोर जैसे सुधाकर के उदय की प्रतीक्षा में अधीर हो रहे हैं। महाकवि ने इस सुअवसर का अतीव मधुर चित्र अंकित किया है – मानस और गीतावली में –
हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।
सुनत सकल जननीं उठि धाई। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई।।
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।
दधि दूर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधुरगामिनी।।
जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।
एक एकन्ह कहुँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा के खानी।।
बहइ सुहावन त्रिविध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।
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