धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
मन-ही-मन श्री भरत के सद्गुणों की प्रशंसा करते हुए श्री हनुमान उत्तर देते हैं – जिसे सुनकर बार-बार पवनात्मज को श्री भरत हृदय से लगाते हैं। प्रसन्नता में सब कुछ विस्मृत हो गया। वह उत्तर था –
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात।।
इसके पश्चात् दोनों प्रेमियों को कर्तव्य की स्मृति आई। श्री भरत नगर की ओर, श्री हनुमान राघवेन्द्र की ओर प्रस्थान करते हैं।
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अयोध्या का कोना-कोना पुरवासियों की हर्षमय ध्वनि से मुखरित हो उठा। आज वियोगव्यथा रजनी का विहान है। ऊषा ने प्राची में अरुण गुलाल बिखेरकर मानो रवि-पथ को सुसज्जित कर दिया है। बस, अब भगवान भुवन-भास्कर उदित होने वाले हैं। सुना है भानुकुल-भूषण आज पुष्पक विमान में आ रहे हैं। लोगों के नेत्र विकसित हो ऊपर की ओर निहार रहे हैं। तोरण, बन्दनवार, कदली-स्तंभ से नगर सुसज्जित किया जा रहा है। आज राम आ रहे हैं। आज महाराजाधिराज पधार रहे हैं – प्राणवल्लभ के दर्शन होंगे – लाडले राम आ रहे हैं – मर्यादापुरुषोत्तम आ रहे हैं। सब अपनी-अपनी भावना व कल्पना में निमग्न हैं। स्वागत के लिए दधि, दूर्वा, पुष्प, फल मंगलमय धान्य स्वर्ण-थालों में सजाए सुमुखि सुलोचनि ललनावृन्द कोकिलाधिक कमनीय सुकण्ठ से राघव की गुणगाथा गाती हुई राजपथ से चलीं। कहाँ ! उन्हें स्वयं ज्ञात नहीं। बस उनके कर्णकुहरों में शब्द प्रविष्ट हुआ “नवाम्बुधर-चित्तहारी-रावणारि अवध पधार रहे हैं।” शीघ्रता से दौड़ पड़ी। हाँ! दौड़ीं – आज मर्यादा कहाँ? स्वयं नगरी भी आज सुसज्जित वन-वधू की भाँति पन्थ निहार रही है प्राण-प्रेष्ठ का। उल्लास, उत्कण्ठा, उमंग, प्रत्येक जन के अंग-अंग से फूटी पड़ रही है।
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