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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


इधर गीतावली में होने वाले वार्तालाप का मधुर आनन्द देखिए –

सुनियत सागर सेतु बँधायो।
कोसलपति की कुसल सकल सुधि कोउ एकदूत भरत पहँलायो।
बध्यो विराध त्रिसिर खरदूषन सर्पनखा को रूप नसायो।
हति कबंध बल अंध बालि दलि कृपासिन्धु सुग्रीव बसायो।।
सरनागत अपनाइ बिभीषन रावन सकुल समूह बहायो।
बिबुध समाज निवाजि बाँह दै बंदि छोर वन बिरद कहायो।।
एक एक सो समाचार सुनि नगर लोग जहँ तहँ सब धायो।
धन धुनि अकनि मुदित मयूर ज्यों बूड़त जलधिपार सो पायो।।
अवधि आजुयों कहत परसपर बेगि विमान निकट पुर आयो।

* * *

प्रतीक्षा की बेला समाप्त हुई। पुष्पकयान भूमि पर उतरा। कोटि-कन्दर्प कमनीय दूर्वादल द्युति तनु भगवान् श्री रामचन्द्र यान से उतर कर पृथ्वी पर श्री चरण रखते हैं। श्री अवध की पावन भूमि आनन्द-मग्न हो गई। किन्तु राघव की दृष्टि ढूँढ़ रही है ‘किसी को’ – और वह सामने नहीं है। लज्जित संकुचित छिपी दृष्टि ले विप्रवृन्द के पीछे खड़ा रूप-सुधा का पान कर रहा है। प्रभु इस समय प्रेमी को नहीं छोड़ते। धर्म-धुरीण धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर गुरुचरणों की ओर गमन करते हैं। दौड़कर महर्षि के चरणों में लिपट जाते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण की सादर अभ्यर्थन करते हैं। प्रेमी अधीर हो रहा है मिलने के लिए, पर तब भी उसे प्रभु की मर्यादा का ध्यान है। ब्राह्मणों से मिलन समाप्त होते ही प्रभु प्रेमी की ओर देखते हैं और प्रेममूर्ति चरणों से लिपट जाते हैं। राघव उठाकर हृदय से लगाना चाहते हैं – “भरत तुम्हारा स्थान यहाँ है – यहाँ देखो – मेरे हृदय में। लाल ! उठो वत्स !” किन्तु प्रेमी अश्रु से भिगो रहा है उनके पादपद्मों को। छोड़ना नहीं चाहता। - “न, नाथ ! मेरे लिए यही उपयुक्त स्थान है। मैं इन्हें अब न छोड़ूँगा। तुम्हारे श्री चरणों को स्वतन्त्र न करूँगा। पता नहीं कब प्रस्थान कर दें।”

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