धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अवधि आज किधौं औरो दिन ह्वै हैं।
चढ़ि धौरहर, बिलोकि दखिन दिसि,
बूझ धौ पथिक कहाँते आएवै हैं।।
बहुरि बिचारि हारि हिय सोचति,
पुलकिगात लागे लोचन च्वै हैं।
निज बासरनिबरष पुरबैगो बिधि,
मेरे तहाँ करम कठिन कृत क्वै हैं।।
बन रघुबीर, मातु गृह जीवति,
निलज प्रान सुनिसुनि सुख स्वै हैं।
तुलसिदास मो सी कठोर-चित्त,
कुलिस-साल भंजनि को ह्वै है।।
मूर्च्छा आना चाहती है व्याकुलता के कारण, तभी क्षेमकरी आकर मँडराने लगी भवन के ऊपर। माँ को धैर्य होता है, प्रार्थना कर रही हैं उस क्षेमकरी से –
छेमकरी ! बलि बोलि सुबानी।
कुसल क्षेम सिय राम लषन कब ऐहैं,
अंब ! अबध रजधानी।।
ससि मुखि, कुंकुम-बरनि, सुलोचनि,
देवि ! दया करि देहि दरश फल,
जोरिपारि बिनवहिं सब रानी।।
सुनि सनेहमय बचन, निकट ह्वै,
मंजुल मंडल के मँडरानी।
शुभ मंगल आनन्द गमन-धुनि,
अकनि-अकनि उर-जड़नि जुड़ानी।।
फरकन लगे सुअंग बिदिसि दिसि,
मन प्रसन्न, दुख-दसा सिरानी।
करहिं प्रनाम सप्रेम पुलकि तनु,
मानि बिबिध बलि सगुन सयानी।।
उनको पूर्ण विश्वास हो गया – रामभद्र के शुभागमन का।
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