धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
पर यहाँ नन्दिग्राम में बैठे हुए चिर प्रतीक्षा संलग्न प्रेममूर्ति श्री भरत की स्थिति सबसे अधिक निराली है। उस भावुक शिरोमणि को भी शकुन हो रहे हैं, किन्तु उसका हृदय प्रसन्न न हो सका। क्योंकि अन्य लोग तो उस अवधि जहाज के यात्री हैं, पर इस तप-मूर्ति को तो नौका भी खेना है। चौदह वर्ष प्रतिक्षण अनवरत रीति से नाव को सकुशल खेता रहा यह नाविक इस आशा से कि इस समुद्र का भी एक छोर है। और उस छोर पर हमारे प्राणधन नव जलधर रुचिहारी करुणा वरुणालय रामचन्द्र के दर्शन होंगे। पर आज कोई सूचना न प्राप्त होने से उसकी आशा निराशा में परिणित हो रही है। भूमि के दूर से भी दर्शन नहीं हो रहे है। पथिकों से उसकी व्याकुलता की तुलना नहीं हो सकती। उसका अंग-अंग निर्जीव हो रहा है। हा नाथ ! अब क्या होगा? व्यथा भरे हृदय से विचार करने लगा वह नाविक – वह महाव्रती दीनता की प्रतिमूर्ति है। दूसरा होता तो उसके कण्ठ से निकल पड़ता – “हा निठुर ! तुझे थोड़ी भी परख नहीं किसी के हृदय की” – प्रेमी को ऐसा कहने का अधिकार है। वे कभी खीझकर व्याकुलता के आवेश में कह भी देते हैं – “बेदरही तोहि दरद न आवै।” यह स्नेह-सिक्त वाणी प्रभु को बड़ी प्यारी लगती है। श्रीकिशोरी जी ने श्री हनुमान से कह ही तो दिया –
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
पर इस अनोखे प्रेमी के मन में तो यह भी नहीं आता। उसे तो स्वयं में ही सारा दोष दीखता है। राघवेन्द्र में नहीं। “आये क्यों नहीं” – मन ने उत्तर दे दिया कि “वे तो कारुणीक हैं, किन्तु हम जो कुटिल हैं” –
कारन कवन नाथ नहिं आयउ।
जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।
बुद्धि ने कहा – “नहीं, वे तुम्हें कुटिल नहीं मानते।” उन्होंने तो चित्रकूट में घोषणा कर दी थी कि “उर आनत तुम पर कुटिलाई। जाई लोक परलोक नसाई।।” अतः ऐसा सोचना भ्रामक है। मन चीत्कार कर उठा- “नहीं-नहीं – यह सब कुछ नहीं। यह तो प्रभु ने शिष्टाचार के कारण कह दिया होगा। वे सरल चित्त हैं, कैकेयी को भी कब उन्होंने बुरा कहा-”
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