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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


इसके पश्चात् लंकाकाण्ड में ही महाकवि फिर हमें भवसागर श्री भरत का दर्शन कराते हैं।

अर्ध रात्रि के समय जब सारी अयोध्या निस्तब्ध है – सब लोग निद्रा में निमग्न हैं – तब भी देखिए एक अधीसार व्रती जाग रहा है। उनके नेत्र में निद्रा कहाँ है? भगवान् नन्दनन्दन की किसी वियोगिनी भावुक गोपी ने स्वप्न में प्रियतम के दर्शन किए और प्रातःकाल उस स्वप्न-मिलन की घटना सर्वोत्कृष्ट भाव-मग्ना-गोपी को सुनाई। उस प्रेममयी ने कहा – ‘धन्य हो गोपी! जो तुम स्वप्न में तो उनसे मिल लेती हो। किन्तु सखी यहाँ तो प्राण-प्यारे के जाने के पश्चात् वैरिणी निद्रा भी छोड़कर चली गई।’

आस्माकं तु गते कृष्णे गता निद्रापि बैरिणी।

प्रेमियों की गति बड़ी निराली है। उनके रोम-रोम में उनका प्यार प्राणोश्वर रम रहा है। अब नेत्रों में किसी वस्तु के लिए स्थान कहाँ। किसी ने मस्ताने कबीर से कहा – ‘महात्मा वृद्ध हो रहे हैं। नेत्र में काजल दिया करिए’ – प्रेमी बोल पड़ा –

कबिरा काजर रेखहूँ, अब तो दई न जाए।
नैननि पीतम रहि रहा, दूजा कहाँ समाए।।

और कज्जल ही नहीं, निराकार निद्रा के लिए भी उसमें स्थान नहीं –

आठ पहर चौंसठ घड़ी, मोरे और न कोय।
नैना  माँही तू बसै, नींदहि  ठौर न होय।।

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