धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
तो सचमुच श्री भरत के नेत्रों में नींद को भी ठौर नहीं। किन्तु न जाने अपशकुन क्यों हो रहा है। हृदय धड़क रहा है। राघव की चिन्ता से हृदय व्यथित हो उठा। उसी समय आकाशमार्ग में पर्वतधारी कोई विशाल व्यक्ति दीख पड़ा। अपशकुन तो हो ही रहे थे, उन्होंने सोचा प्रभु का विरोधी कोई राक्षस है, जो उनसे बस न चलने पर अयोध्या को नष्ट करने आया है। और सच तो यह है कि उस भटनागर की ही तो प्रेरणा थी श्री भरत के हृदय में। उस खिलाड़ी को सूझ गया होगा कोई खेल – सम्भव है भक्तराज श्री हनुमान जी को शिक्षा देने के लिए ही उसने प्रेरणा दी हो। यूँ श्री भरत स्वभावतः बड़े शान्त हैं। उनका अस्त्र प्रेम है – धनुष-बाण नहीं। फिर भी वे साधारण व्यक्ति नहीं। उसके बल का दिग्दर्शन कराने के लिए यह घटना महान् संकेत है। बाण लिया पर बिना नोक धनुष की प्रत्यंचा खिंची और वायु वेग से जाते हुए अतुलित-बल-बज्रांग-महावीर-हनुमान पृथ्वी पर गिर पड़े। मूर्च्छित होते ही भक्त के मुँह से निकला – ‘राम-राम’ ! श्री भरत की हृदय काँप उठा। दौड़ पड़े। हा ! नाथ ! क्या यही शेष था – इस अभागे द्वारा भक्त पर प्रहार हुआ। दैत्य मूर्ति अपार ग्लानि से गड़ गये। उठाकर गोदी में ले लेते हैं- जागते हैं। पर मूर्च्छा भंग नही होती। तब सपथ ली स्नेही ने –
बिकल बिलोकि कीस उर लावा।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा।।
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी।।
जेहिं विधि राम बिमुख मोहि कीन्हा।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा।।
जौं मोरे मन बच अरु काया।
प्रीति राम पद कमल अमाया।।
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जों मो पर रघुपति अनुकूला।।
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