धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री भरत जा सकते थे, पर वे जानते थे कि इससे हमारे राघव को संकोच होगा। उनकी उदासी मर्यादा भंग होगी। मेरी देखा-देखी सभी आते-जाते रहेंगे। अतः बाध्य होकर उन्हें चित्रकूट का त्यागकर दूसरे वन में भटकना होगा। अपने नेत्र-सुख के लिए वह प्रियतम को संकोच, कष्ट में कैसे डाल सकते थे? फिर उन पर भगवान् कौशलेन्द्र ने प्रजारक्षण का कार्य सौंपा है। और वे प्रतिक्षण सावधान होकर राघव का वात्सल्य-भाजन प्रजा का रक्षण कर रहे हैं। उस व्रत से वे विचलित हों – भला उस आज्ञाकारी द्वारा यह कैसे सम्भव था। जो कुछ निषादराज समाचार भेज देते थे, वे तो बस उतने में ही सन्तोष कर लेते थे। पर एक दिन वह भी छिन गया। क्योंकि वही हुआ, जिसकी आशंका थी। कुछ लोग दर्शन के लिए जाने लगे और मर्यादा-पुरुषोत्तम ने चित्रकूट त्याग का संकल्प कर लिया।
प्रभु वहाँ से चले गये। इसकी सूचना पत्रिका द्वारा भी निषादराज ने प्रेममूर्ति के निकट भेज दी। वे तो मार्ग ही देखा करते थे इस शुभ अवसर का। शीघ्रतापूर्वक गुरुदेव के निकट वह पत्र पहुँचा दिया। और गुरुदेव का स्नेह देखिये। वे वृद्ध महर्षि स्वयं ही पत्र लेकर घर-घर रुद्ध कण्ठ से डोलते सुनाते फिर रहे हैं। दूसरे को यह कार्य सौंपना उन्हें भाता ही नहीं। माता कौशल्या के निकट भी महर्षि ने समाचार सुनाया। उनके लाडले राघव का समाचार मिला है। साथ ही वे महर्षि अगस्त्य के शिष्य के साथ हैं – इस कल्पना से उन्हें बड़ा साहस है। उनके लिए तो वह जीवन मूरि है। पुलकित हृदय से वह अपनी सखि को यह संवाद सुनाती है –
सुनी मैं, सखि! मंगल चाह सुनाई।
सुभ पत्रिका निषाज राज की आजु भरत पहँ आई।।
कुवँर सो कुसल छेम अलि! तेहि फल कुल-गुरु कहँ पहुँचाई।
गुर कृपालु संभ्रम पुर घर घर सादर सबहिं सुनाई।।
बधि बिराध, सुर साधु सुखी करि, ऋषि-सिख-आसिष पाई।
कुंभज शिषय समेत संग सिय, मुदित चले दोउ भाई।।
बीच बिन्ध्य रेवा सुपास थल बसेहैं परन-गृह छाई।
पंथ-कथा रघुनाथ पथिक की तुलसिदास सुनि गाई।।
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