धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अतः यह तो निर्विवाद सत्य है कि महामना भरत का स्थान सर्वोत्कृष्ट है। अयोध्याकाण्ड में श्री ‘भरत रहनि’ का उल्लेख होने के पश्चात् लंकाकाण्ड में ही उनका उल्लेख आता है। स्वभावतः इस बीच अयोध्या में कोई उल्लेखनीय नवीन घटना नहीं हुई। प्रेममूर्ति अहर्निशि पुरवासियों की रक्षा और शासन का प्रत्येक कार्य करते हुए भी राम-प्रेम, स्मरण, चिन्तन में तल्लीन रहे। उनके उस विलक्षण असिधारव्रत की तुलना प्रेममयी गोपियों से ही की जा सकती है।
या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
प्रेङ्खेङ्खनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः।
जो गोपियाँ गाय दुहते, धान कूटते, दही बिलोते, आँगन लीपते बालकों को झुलाते, बच्चों को रोटी देते, घरों में छिड़काव करते तथा झाड़ू देते समय प्रेमपूर्ण चित्त से, आँखों में आँसू भरे, वाणी से नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण के गुणगान किया करती हैं वे तद्गतचित्ता गोपियाँ धन्य हैं।
यहाँ एक प्रश्न का उत्तर दे देना भी अपेक्षित है। कुछ लोगों को जिज्ञासा होती है कि श्री भरत कभी-कभी दर्शनों के लिए क्यों नहीं चले जाते थे? अयोध्या और चित्रकूट की दूरी भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वहाँ जाने में बहुत विलम्ब लगे।
गम्भीर प्रेम की दृष्टि से विचार करने पर श्री भरत का वहाँ न जाना ही उचित प्रतीत होता है। यों तो प्रेमियों की गति ही निराली होती है। वृन्दावन से मथुरा की दूरी ही क्या? महाभागा प्रेममयी गोपियाँ अहर्निशि उनके लिए व्याकुल रहीं। उनकी व्यथा का वर्णन पढ़कर वज्र भी पिघल जाय। किन्तु वे एक बार भी तो ब्रज से मथुरा न आई। क्यों? उस न जाने में उनका प्रेम ही तो कारण था। भावुक जनों ने इसका अनेक प्रकार से उत्तर दिया है। यही तो अन्तर है ‘काम’ और ‘प्रेम’ में। प्रेमीजनों का सर्वस्व उनकी सारी चेष्टा केवल प्रियतम को सुखी बनाने के लिए है। “मेरे किसी कार्य से उन्हें लज्जित होना पड़े”, यह वे कैसे सोच सकते हैं।
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