धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई।
सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई।।
सो करि कहउँ हिए अपने की।
रुचि लागत सोवत सपने की।।
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई।
स्वारथ छल फल चारि बिहाई।।
अज्ञा सम सु न साहिब सेवा।
सो प्रसादु जन पावै देवा।।
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी।
पुलक सरीर बिलोचन बारी।।
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई।
समउ सनेहु न सो कहि जाई।।
कृपासिंधु सनमानि सुबानी।
बैठाए समीप गहि पानी।।
उपरोक्त भाषण की व्याख्या करना – रेशमी वस्त्र में टाट जोड़ देना है। किन्तु इतना ध्यान दिलाना अपेक्षित है कि महामना भरत ने इसमें अपने अयोध्या से आने को अनौचित्य के रूप में घोषित कर दिया। यह इस भाषण की सर्वथा नवीनता सूचित करता है। साथ ही पिछले भाषण के दो-तीन प्रस्ताव भी उन्होंने नहीं दुहराए – (1) हम दोनों बन जाएँ और आप युगल लौट जाएँ, (2) हम तीनों वन जाएँ और आप युगल लौट जाएँ, (3) न तरु फेरिअहिं बम्धु दोउ, नाथ चलउँ मैं साथ। इन प्रस्तावों के साथ आज्ञा देने की प्रार्थना से राघवेन्द्र का संकोच बना रहना। अतः वे कहते हैं कि मेरी समस्त इच्छाएँ आपने पूर्ण कर दीं। अब आपकी आज्ञा ही प्राप्त होनी चाहिए। कहना न होगा कि इन्हीं दो कारणों से भी भरत ने प्रारम्भ में कह दिया था कि “कहहुँ बदन मृदु वचन कठोरा।” इस भाषण से यह स्पष्ट है कि श्री भरत ने समस्त कठिनाइयों को हल कर दिया। बल केवल निर्णय की घोषणा मात्र शेष रही। वह श्री भरत जी प्रभु का ही अधिकार मानते हैं, अपना नहीं। कठिन कालकूट का पान करके भोलानाथ भरत ने अमृत वितरण का कार्य स्वयं न लेकर प्रभु को ही दिया। यही तो उस महापुरुष की महानता है।
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