धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
गोस्वामी जी के शब्दों में –
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना।
गुन गति नट पाठक आधीना।।
दो. – यों सुधारि सनमानि बन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल किन पालिहै बिरिदावलि बरजोर।।
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ।
आयउँ लाइ रजायसु बाएँ।।
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा।
सबहिं भाँति भल मानेउ मोरा।।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला।
जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।।
बड़े समाज बिलोकेउँ भागू।
बड़ी चूक साहिब अनुरागू।।
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई।
कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई।।
राखा मोर दुलार गोसाई।
अपने सील सुभायँ भलाई।।
नाथ निपट मैं कीन्ह ढिठाई।
स्वामि समाज सकोच बिहाई।।
अबिनय बिनय जथारुचि बानी।
छमिहि देउ अति आरति जानी।।
दो. – सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि।।
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