धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भूमिका से ही स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत प्रसंग कितना गम्भीर है। इसका कारण भी है कि अब तक श्री भरत एक शुद्ध प्रेमी के रूप में रहे और उनके प्रेम ने सबको पराजित कर दिया। महर्षि वसिष्ठ और मर्यादा-पुरुषोत्तम भी उनके प्रेम द्वारा अपने को बन्दी अनुभव करने लगे। पर श्री भरत जैसे प्रेमी प्रभु को पराजित नहीं करना चाहते। उन्हें संकोच में नहीं डालना चाहते। अतः अपने प्रेम को रोककर परम विवेकी के रूप में अवतरित हो रहे हैं। कितना निगूढ़ आत्मसमर्पण है। उसकी इच्छा, उसकी प्रसन्नता के लिए प्रेमी आज ‘विवेकी’ बम गया। आज वह सर्वथा नए क्षेत्र में बोल रहा है। अतः कठोरता के लिए क्षमायाचना करता है। हंसवाहिनी का आह्वान करता है। और अपने हृदयस्थ प्रभु युगल स्वरूप का स्मरण करता है। सदा प्रेम भरे नेत्रों से निहारने वाला आज विवेक बिलोचनों से सबकी ओर देखता है और तब प्रारम्भ करता है अपने भाषण को –
“भगवान्! आप मेरे पिता, माता, सुहृद, गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय, श्रेष्ठ स्वामी, शीलागार, शरणागत, रक्षक, सर्वज्ञ, सुजान, समर्थ, गुणों का आदर करने वाले, पाप और अवगुणों का नाश करने वाले हैं। आप जैसे स्वामी – आप ही हैं। और स्वामी-द्रोह में मैं भी अद्वितीय हूँ। मैं मोह के कारण आपके और पिताजी के वचनों का उल्लंघन करके सारे समाज के साथ यहाँ आया। संसार के समस्त प्राणी अच्छे, बुरे आपकी ही आज्ञा का पालन करते हैं। कोई ऐसा नहीं, जो उसका उल्लंघन कर सके। किन्तु इस कुसेवक ने वह भी किया और आपने मेरी इस धृष्टता को स्नेह व सेवा मान लिया। अपनी सहज करुणा से मेरा भला किया। मेरे दूषणों को ही भूषण का रूप दे दिया। चारों ओर मेरी यश गाथा फैल गई। क्यों न हो आपकी तो यह रीति ही है। महान् पापी, नास्तिक, समस्त दुर्गुणों से पूर्ण व्यक्ति भी यदि एक बार शरणागत होकर आपको प्रणाम कर दे, तो आप उसे अपना लेते हैं। उसके दोषों को देखकर भी उस पर ध्यान नहीं देते और उसके गुणों को सुनकर स्वयं मुग्ध हो जाते हैं। साधु समाज में भी उसकी प्रशंसा करते हैं। आपको छोड़ कर ऐसा कौन स्वामी होगा, जो सेवक की समस्त सेवा करने के पश्चात् भी संकुचित रहे कि मैंने इसके लिए कुछ नहीं किया। मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि आपको छोड़ अन्य कोई भी ऐसा नहीं कर सकता।”
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