धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रेममूर्ति भरत का स्वभाव सौशील्य देखकर कौशलेन्द्र सहित सारा समाज विदेह हो गया। सभी लोग उनके भ्रातृत्व की प्रशंसा मन-ही-मन कर रहे हैं। आकाश से पुष्प-वृष्टि होने लगी।
रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धऩी।
मन महुँ सरहात भरत भायप भगति की महिमा घनी।।
भरतहिं प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से।।
हाँ ! श्री भरत के इस निर्णय से पुरवासी जन संकुचित हो गए, क्योंकि इनकी आकांक्षा थी कि वे श्री राघव से लौटने का आग्रह करेंगे। गोस्वामी जी ने एक बड़ी ही भावपूर्ण उपमा से इस स्थिति का चित्रण किया है। जैसे रात्रि का आगमन देखकर कमल समूह संकुचित हो जाता है। प्रभु का वियोग ही रात्रि है। अभी तक भरत रूप सूर्य के आश्रय से पुरवासी प्रफुल्लित और निश्चिन्त थे, किन्तु उनको भी सेवक-धर्म के अस्ताचल में अस्त होते देख पुरवासी जलजों की समस्त आशा जाती रही।
इस व्यथापूर्ण अवसर पर ही देवराज इन्द्र ने आर्त्त नर-नारियों पर उच्चाटन का प्रयोग कर दिया।
श्री भरत, जनक, मुनिमण्डली और मातृमण्डल को छोड़ अन्य सभी लोगों पर इसका प्रभाव पड़ा। ऐसी परिस्थिति में पुरवासी बड़ी ही द्वन्द्वात्मक व जटिल मनःस्थिति में पड़ गये। लोगों को घर की स्मृति आ गई – दूसरे ही क्षण राम-प्रेम की स्मृति हुई और वन में रहना उचित जान पड़ने लगा। मन, बुद्धि के इस द्वन्द्व से सभी लोग व्यथित हो रहे हैं। किन्तु एक दूसरे से कहते नहीं। लज्जानुभव करते हैं।
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