धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री ‘भरत मति’ की तो बात ही निराली है। यह तो एकान्त भाव से भगवच्चरणानुरागिनी है। हृदय के अन्तःपुर में सदा अपने प्रियतम की सेवा-पूजा-चिन्तन में तल्लीन रहती है। उसे इतना अवकाश नहीं कि वह बाहर निकल कर माया का नृत्य देखे और प्रभु के एकान्त रंग भवन में नर्तकी कैसे प्रविष्ट हो सकती है। अतः उसे पथभ्रष्ट करना तो दूर रहा – “सोउ न भरत मति सकै निहारी” – देखना असम्भव है।
वीणापाणि ने कहा – “भला उस दिव्य मति को भुलावा देने के लिए तुम मुझसे कहते हो? क्या चन्द्र-किरण सूर्य को चुरा सकती है?” अभिप्राय यह है कि चन्द्र-किरण का कार्य है अंधकार का अपहरण करना। उसी तरह सरस्वती का कार्य भी अज्ञानान्धकार का किंचित् अपहरण करना है। किन्तु उससे सूर्यापहरण की प्रार्थना करना मानो ज्ञान-सूर्य के नाश की प्रार्थना करना है। यह ध्यान रहे कि चन्दिनि अंधकार का नाश नहीं कर पाती, वह तो उसमें प्रकाश मात्र फैलाने की चेष्टा करती है। इसी प्रकार बुद्धि के द्वारा अज्ञान का नाश नहीं होता है, वह केवल थोड़ी सहायता कर पाती है। अज्ञानान्धकार का समग्र नाश तो विज्ञान सूर्य के उदय से ही सम्भव है। स्वयं अल्प प्रकाश पूर्ण प्रकाश को कैसे चुरा सकता है। वह तो उसी में तल्लीन हो जायेगा। अभिप्राय यह है कि यदि मैं उनकी बुद्धि चुराने जाऊँ, तो भी मैं वहीं उनके मन में दीक्षित होकर रहूँगी। यदि हे देवताओं! तुम यह कहो कि आप स्वयं न सही, अपनी माया को ही भेज दीजिए वह तो चन्दिनि नहीं है, तो यह भी निरर्थक है, क्योंकि सूर्य के समक्ष अन्धकार नहीं जा सकता। जहाँ राम-रूप-दिव्य नित्य सूर्य का निवास है, वहाँ मायान्धकार का प्रवेश कैसे होगा? उसका नाश अवश्यमभावी है। ऐसा कहकर गौरांगी वीणापाणि ब्रह्मलोक को चली गई।
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