धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भगवान् श्री राघवेन्द्र ने सभी सज्जनों का स्वागत करके, उनसे बैठने की प्रार्थना की। बैठने के पश्चात् महर्षि वसिष्ठ ने जनक-भरत का सम्पूर्ण संवाद सुनाया। और प्रार्थना की कि अब आप जैसा कहें, हम लोग वही करें –
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू।।
शील निधि प्रभु ने प्रणाम करके उत्तर दिया –
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी।
बोले सत्य सरल मृदु बानी।।
विद्यमान आपुनि मिथिलेसू।
मोर कहब सब भांति भदेसू।।
राउर राय रजायसु होई।
राउरि सपथ सही सिर सोई।।
दो. – राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत।।
यहाँ जो एक विचित्र वातावरण है कि कोई निर्णय नहीं देता है, सब एक दूसरे के ऊपर टालते हैं, उसका एक बड़ा ही मनोवैज्ञानिक कारण है। निर्णय की रूपरेखा सब प्रधान व्यक्तियों के मन में एक-सी है। महर्षि वसिष्ठ तो प्रारम्भ से ही प्रभु के वन जाने के पक्ष में हैं। स्वयं राघव के हृदय में भी यही बात है। उन्हें देव-कार्य करना है। महाराज जनक से भी याज्ञवल्क्य जी ने सारा भविष्य बता रखा है। अतः वे भी यही निर्णय कर चुके हैं और स्वयं श्री भरत भी राघवेन्द्र के धर्म-संकट को देखकर लौटने का विचार छोड़ चुके हैं।
प्रश्न होता है कि फिर सब टाल क्यों रहे हैं? उत्तर है – प्राथमिकता करने में प्रत्येक को संकोच हो रहा है। वसिष्ठ जी सोचते हैं – “यदि हम ऐसा प्रस्ताव करेंगे, तो लोग मुझे निष्ठुर मान लेंगे। कहेंगे इनके हृदय में लौटाने की इच्छा ही न थी। यह तो मुनियों का स्वार्थ देख रहे हैं, फिर भरत....।”
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