धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
ऐसी अनिश्चित स्थिति में ही सब लोग राघवेन्द्र के निकट पहुँचे। इधर इन प्रेममूर्तियों को एकत्र आते देखकर स्वार्थी देवता भयभीत हो गए। स्वार्थ अन्धा होता है अतः विचारहीन हो देवताओं ने शारदा को आमन्त्रित किया और “भरत-मति” परिवर्तित करने की प्रार्थना की। देवी हंसवाहिनी शारदा ने बड़ा ही भावमय उत्तर दिया –
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी।
बोली सुर स्वारथ जड़ जानी।।
मो सन कहहु भरत मति फेरू।
लोचन सहस न सूझ सुमेरू।।
बिधि हरि हर माया बढ़ि भारी।
सोउ न भरत मति सकइ निहारी।।
सो मति मोहि कहत करु भोरी।
चंदिनि कर कि चंडकर चोरी।।
भरत हृदयँ सिय राम निवासू।
तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू।।
हंसवाहिनी यह जान गई कि ये सब स्वार्थ के कारण जड़ हो रहे हैं। अतः स्पष्ट कर दिया कि मेरी तो बात ही क्या भरत मति को ब्रह्मा, विष्णु, शिव की माया भी नहीं देख सकती। माया नर्तकी के सदृश है। जैसे नर्तकी अपनी कुचेष्टाओं से अस्थिर मति-रूपाकुल स्त्रियों को आकृष्ट कर उन्हें पथ-भ्रष्ट कर देती है उसी प्रकार देवताओं की माया नर्तकी है। सरस्वती की माया भी सुन्दर नर्तकी है। क्योंकि इसे विशेष कला ज्ञात है। ब्रह्मा आदि की माया और भी प्रबल है। देव-माया मं तो केवल सौन्दर्य हैं – वाणी-माया में कला और सौन्दर्य दो गुण और ब्रह्मादि की माया में कला, सौन्दर्य और शक्ति तीन गुण हैं। परन्तु तब तक मति-रूपाकुल स्त्री पतित नहीं हो सकती, जब तक कि किंचित् चंचलता उसमें स्वंय न हो। अगर वह स्थिर होती, तो अपने गुरुजनों की सेवा छोड़कर वारांगना की ओर दृष्टि ही क्यों डालेगी। अतः बुद्धिमानी तो इसी में है कि इस माया नर्तकी की ओर देखें भी नहीं –
होइ बुद्धि जौं परम सयानी।
तिन्ह तन चितब न अनहित जानी।।
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