धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
वे निम्नलिखित बातें मुख्य रूप से कहते हैं –
1. मैं निर्णय करने योग्य नहीं हूँ।
2. मैं सेवक हूँ।
3. सेवा और स्वार्थ में विरोध है।
4. राम की रुचि की रक्षा करनी चाहिए।
5. वे धर्मव्रती हैं।
6. निर्णय सर्वसम्मति से कीजिए।
7. सबका हित और सबके प्रेम की रक्षा हो।
उपर्युक्त बातों में संगति लगाना असंभव है। एक ओर वे प्रेम और सेवा का विरोध बताते हैं। दूसरी ओर लोगों के प्रेम की रक्षा की बात करते हैं। स्वयं में निर्णय की अयोग्यता बताते हैं और ‘राम-रुचिरक्षा’ का भी संकेत कर देते हैं। सर्वसम्मति से सर्वहित से निर्णय करने का अनुरोध करते हैं। अपने को पराधीन बताकर उससे तटस्थ रहते हैं। अतः कहना ही पड़ेगा –
गहि न जाय अस अद्भुत बानी।
किन्तु इसका तात्पर्य नहीं कि उन्होंने परस्पर असम्बद्ध या असंगत बातें कहीं हों। श्री भरत के दृष्टिकोण में तो पूर्णसंगति है। उसका स्पष्टीकरण आगे हो जाता है।
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