धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री भरत का भाषण समाप्त होते ही महाराज जनक सहित सारा समाज साधु-साधु कहने लगा। श्रीमद् कविकुल चूड़ामणि ने यहाँ श्री भरत की वाणी के लिए बड़ी सुन्दर उपमा दी है –
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे।
अरथु अमित अति आखर थोरे।।
ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी।
गहि न जाइ अस अद्भुत बानी।।
भरत जी के शब्द सुगम हैं। किन्तु उनमें भाव अगम हैं। सुन्दर और कोमल होने पर भी वह कठोर हैं। अक्षर सीमित हैं, पर अर्थ असीम। जैसे मुख का प्रतिबिम्ब दर्पण में दीखता है और दर्पण अपने हाथ मंम है, फिर भी वह प्रतिबिम्ब पकड़ा नहीं जा सकता। इसका स्पष्ट भावार्थ यह है कि श्री भरत की वाणी मुख के सदृश है, जिसका प्रतिबिम्ब स्वच्छ दर्पण रूप हृदय वाले श्री वसिष्ठ, महाराज जनक, महामुनि विश्वामित्र जी, के हृदय में पड़ रहा है। अभिप्राय यह है कि ये लोग भरत-भाषण के भाव को हृदयंगम कर चुके हैं। किन्तु जैसे कोई उस प्रतिबिम्ब को पकड़ना चाहे, भले ही दर्पण हाथ में हो, पर पकड़ नहीं पाता, वही दशा इस समय इन महापुरुषों की है। अधिकारी हृदय प्राप्त होना ही मानो उनके साथ में दर्पण होना है। अब वे चाहते हैं कि भरत-भाषण से ही स्पष्ट निर्णय कर लें (यही प्रतिबिम्ब को पकड़ने की चेष्टा है)। किन्तु भरत जी ने निर्णय के लिए उन लोगों को ही विचार करने की सम्मति दी। स्वयं अपनी ‘पराधीनता’ का निर्देश कर बता देते हैं कि मेरा कोई स्वतन्त्र निर्णय नहीं। प्रभु का निर्णय ही मेरा निर्णय है। हाँ, आप लोग स्वतन्त्र हैं। अतः जो उचित समझें, वही प्रस्ताव प्रभु के यहाँ प्रस्तुत करें। वे स्वयं निर्णय करने की स्थिति में उसे मान ही लें, यह भी निश्चित नहीं। क्योंकि अपने को ‘पराधीन’ बताकर निर्णय मानने के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में उनके भाषण से निर्णय करना और भी असम्भव हो गया। यही प्रतिबिम्ब का न पकड़ पाना है। वास्तव में श्री भरत ने जो बातें कही हैं, वे सुगम अगम ही हैं।
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