धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री भरत द्वारा इस प्रकार स्वार्थ और स्वामि-धर्म के विरोध का उल्लेख एक विशेष कारण से किया गया है। प्रभु ने समग्र निर्णय का भार भरत पर छोड़ दिया है। श्री भरत के सामने कठिन समस्या है, क्योंकि पुरवासी अब भी यही चाहते हैं कि या तो प्रभु लौट चलें या हम लोग भी यहीं रहें –
बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।
जेहि घर भाव बाम बिधि तेही।।
से उनकी विचारधारा का स्पष्टीकरण होता है। वे –
मन्दाकिनी मज्जनु तिहु काला।
राम दरसु मुद मंगल माला।।
की कल्पना में इतने आनन्दमग्न हैं कि राम की विचारधारा पर सोचने का अवकाश ही नहीं। ‘प्रेम’ ने ‘प्रबोध’ का हरण कर लिया है। पर श्री भरत जानते हैं कि यह दोनों ही सम्भव नहीं है। स्वयं प्रभु कह चुके हैं कि पितृ-आज्ञा उल्लंघन से मुझे दुख होगा। अतः उनसे लौटने का आग्रह करना अनुचित है। दूसरी ओर लोगों के निकट रहने से प्रभु का दोहरा संकोच होगा। एक तो लोगों को अपने कष्ट उठाते देख दूसरे उदासी धर्म का उल्लंघन। अब श्री भरत के समक्ष जो उलझन है, उसे वे स्पष्ट कर देते हैं कि हम लोग स्वार्थ छोड़कर सोचें, तभी सेवा-धर्म का निर्वाह होगा। अन्त में उन्होंने यही अनुरोध किया कि मुझे पराधीन जानकर श्री राम की रुचि, उनकी सत्य-सन्धता और नियम का ध्यान रखते हुए सर्वसम्मति से सर्वहित निर्णय कीजिए –
राखि राम रुख धरमु व्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब के संमत सर्व हित करिअ प्रेमु पहिचानि।।
|