धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
महर्षि वसिष्ठ, महात्मा विश्वामित्र, महाराज जनक आदि मिलकर श्री भरत की पर्णकुटी पर आते हैं। श्री भरत ने सबका यथायोग्य सत्कार करके आसन दिया। बैठने के पश्चात् महाराज श्री भरत ने सबका प्रतिनिधित्व करते हुए सब लोगों का यहाँ आने का कारण बताया –
तात भरत कह तेरहुति राऊ।
तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ।।
दो. – राम सत्यव्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु।
संकट सहत संकोच बस कहिअ जो आयसु देहु।।
इसके पश्चात् श्री भरत के मुख से ‘सेवा-धर्म’ का दिव्य रहस्य प्रकट हुआ। किन्तु उसके पूर्व उनका सहज दैन्य जागृत हो बोल उठा –
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी।
बोले भरत घीर धरि भारी।।
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू।
कुलगुरु सम हित माय न बापू।।
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू।
ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू।।
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी।
जानि मोहि सिख देइअ स्वामी।।
एहि समाज थल बूझब राउर।
मौन मलिन मैं बोलब बाउर।।
अपने को ‘बाउर’ और ‘मलिन’ मन मानने वाले महापुरुष के मुख से जिस सेवा-धर्म का प्राकट्य हुआ, वह उनकी पवित्र निःस्वार्थ दृष्टि का सबसे बड़ा प्रमाण है –
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।
सेवाधरमु कठिन जगु जाना।।
स्वामि धरम स्वारथहिं बिरोधू।
बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू।।
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