धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अतः साथ न रहने से उन्हें क्षोभ होगा यह धारणा भ्रामक है। श्री भरत की प्रसन्नता प्रभु के ही आश्रित है। वे उनकी आज्ञा का हृदय से पालन करेंगे। राघवेन्द्र की इच्छा के विरुद्ध सच्चे प्रेमी के मन में कोई संकल्प उठ ही नहीं सकता है –
भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ।।
वास्तव में ज्ञान-अग्रगण्य गूढ़ प्रेमी महाराज जनक श्री भरत हृदय के अधिक पारखी सिद्ध होते हैं अन्य सभी लोगों की अपेक्षा। और ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि दोनों ही गूढ़ प्रेमी हैं –
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं।
बन्दउँ परजन सहित बिदेहू।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।।
दोनों एक ही प्रेमधारा के उपासक होने के नाते अन्यों की अपेक्षा अधिक निकट हैं। महाराज की ही विचारधारा ऐसी जान पड़ती है, जिसमें भरत-विचारों के प्रति अन्याय नहीं किया गया है –
भगवत रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।।
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