धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
यदि कोई पूछ दे कि “फिर भला तुम पर पत्थर क्यों बरसाता है?” तो वह उत्तर देता है “तुम क्या जानो, वह कठोरता द्वारा स्नेह छिपाता है। साथ ही मेरे यश की वृद्धि भी तो करना चाहता है” –
प्रेम न परखिज परुषपन पयद सिखावन एह।
जग न परखिज पातकी ऊसर बरसे मेह।।
ममत्व और स्नेह की सीमा होने के कारण श्री भरत के हृदय में निष्ठुरता की कल्पना ही उत्पन्न नहीं हो सकती। वे उसमें भी प्रभु का स्नेह और ममत्व ही देखेंगे। फिर लक्ष्मण जी को लौटाकर स्वयं जाने की आकांक्षा श्री भरत के हृदय में क्यों उत्पन्न होगी? जहाँ तक समझता मैं हूँ श्री भरत तो स्वप्न में भी स्वार्थ-परमार्थ की बात नहीं सोचते हैं –
परमारथ स्वारथ सुख सारे।
भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे।।
महाराज के कहने का अभिप्राय यही है कि हम ऐसा प्रस्ताव इसीलिए करते हैं कि प्रभु-साहचर्य-सुख-रूप-परमार्थ के प्रति हमारी महत्त्व दृष्टि है। पर भरत का मन समस्त सुखों को केवल चरण प्रेम को ही अपना साधन व साध्य दोनों मानता है –
साधन सिद्धि राम पग नेहू।
मोहि लखि परत भरत मत ऐहू।।
“प्रियतम साथ रखें या त्याग दें। जीवन भर विस्मृत रखें। किन्तु उनके चरणों में मेरा स्नेह बना रहे।” यही है सच्चे प्रेमी की आकांक्षा। और श्री भरत भी यही चाहते हैं –
जलद जनम भरि सुरति बिसारउ।
जाचत जल पवि पाहन डारउ।।
चातक रटनि घटे घटि जाई।
बढ़े प्रेम सब भाँति भलाई।।
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