धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
थोड़े शब्दों में उस महापुरुष ने समग्र शास्त्र-पुराणों का सार ही व्यक्त कर दिया। सभी शास्त्र सेवा-धर्म को अत्यन्त कठिन बताते हैं। प्रश्न होता है कि सेवा-धर्म में क्या कठिनाई है? उत्तर स्पष्ट है। सेवा-धर्म और स्वार्थ में विरोध है। व्यक्ति के लिए स्वार्थ त्याग अतीव दुष्कर है। क्योंकि जब तक ‘स्व’ का भान है, तब तक स्वार्थ कैसे छोड़ा जा सकता है। मनुष्य के लिए प्रेम का त्याग ही कठिन है। श्रेय का त्याग तो दूर की बात रही। सेवक को तो ‘श्रेय’ का भी लोभ नहीं होना चाहिए, क्योंकि ‘श्रेय’ निम्नकोटि का स्वार्थ न होते हुए भी उच्चकोटि का स्वार्थ या परमार्थ तो है ही। इसी दृष्टि से मानस में मुनियों को भी स्वार्थी कहा गया है –
सुर नर मुनि सब की यह रीती।
स्वारथ लाग करै सब प्रीती।।
जहाँ किंचित भी स्वार्थ है, वहाँ सेवा-धर्म का निर्वाह भले ही ऊपर से निर्वाह-सा प्रतीत होता हो, होना सम्भव नहीं है। क्योंकि सेवक को सर्वास्वार्पण करना पड़ता है। वस्तु त्याग वह भले ही कर दे, पर ‘स्व’ त्याग नहीं कर सकता। इस बात को वे एक उदाहरण से और भी स्पष्ट कर देते हैं –
बैर अंध प्रेमहि न प्रबोधू।
बैर अंधा और प्रेम विवेकहीन होता है। कहने का तात्पर्य यह कि स्वार्थ के दो ही परिणाम होते हैं – बैर अथवा प्रेम। यदि स्वार्थ की पूर्ति न हुई, तो विरोधी भावना का उदय होगा। क्रोध में अन्धा होकर वह उचित-अनुचित का विचार छोड़ देगा। मानस में इसका उदाहरण स्पष्ट है – देवर्षि नारद का चरित्र।
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