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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े।
नीरज नयन गेह जल बाढ़े।।

किन्तु इससे भरत जी की विचारधारा का अनुमान नहीं किया जा सकता। उनकी विचार-पद्धति सर्वथा अलौकिक है।

उदाहरण के लिए हम उसी प्रसंग को ले लें, जहाँ यह चौपाई है। सभी लोगों ने यह कल्पना की थी कि वे अब लौटने का प्रस्ताव करेंगे। किन्तु उनका अनुमान भ्रामक सिद्ध हुआ। अतः महिमा ही नहीं उसकी छाया का भी स्पर्श नहीं किया जा सकता। ‘छलि’ शब्द का अभिप्राय है धोखे से भी। जैसे महर्षि ने चतुराई से भरत के हृदय की बात जान लेनी चाही, किन्तु वे तो न जान सके और अपना भेद बता बैठे। भरत अथाह समुद्र ही बने रहे। “पावत नाव न बोहित बेरा।”

अतः श्री भरत अनिर्वचनीय हैं। किन्तु अनिर्वचनीय होने का यह अर्थ नहीं कि वे समाज के लिए निरर्थक हैं – अपितु कल्याणकारी हैं।

विधि(1) गनपति(2) अहिपति(3) सिव(4) सारद(5)।
कवि(6)  कोबिद(7)  बुध  बुद्धि(8)  बिसारद(9)।।

भरत  चरित  कीरति  करतूती।
धरम सील गुन बिमल बिभूती।।
समुझत सुनत सुखद सब काहू।
सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू।।

उपरोक्त चौपाइयों में नव व्यक्तियों के नाम गिनाए गए हैं, जो तीनों लोक का प्रतिनिधित्व करते हैं। विधि, गणेश, शिव और शारदा स्वर्ग लोक का, भगवान् शेष पाताल लोक का और कवि, ब्रह्मज्ञानी, बुध और विशेष विद्वान मृत्युलोक का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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