धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सबसे पहले अपनी असमर्थता का वर्णन श्री जनक जी ने किया –
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू।
इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।
सो मति मोरि भरत महिमाही।
कहै काह छलि छुअति न छाँही।।
देवि ! मेरी बुद्धि धर्म, राजनीति और ब्रह्म विचार में कुछ प्रवेश रखती है। किन्तु मेरी वह मति भरतमहिमा का वर्णन भला कैसे करे? जब छल करके भी उसकी छाया को स्पर्श नहीं कर पाती।
यहाँ श्री भरत की महिमा का प्रधान अभिप्राय उनका ‘प्रेम’ है। ‘प्रेम’ को महानुभावों ने ‘अनिर्वचनीय’ माना है क्योंकि वह सूक्ष्मतर है।
गुण रहितं, कामना रहितं, प्रतिक्षण वर्धमानं,
अविच्छिन्नं, सूक्ष्मतरं, अनुभव रूपं प्रेमस्वरूपं (ना. सू. 54)
वह प्रेम जिसके हृदय में है, उसके लिए अनुभव रूप है। फिर सूक्ष्मतर होने से दूसरे की बुद्धि उसमें कैसे प्रविष्ट हो सकती है। अतः इस वास्तविक प्रेम का स्पर्श तो होने से रहा। तब उसकी छाया का ही स्पर्श करें। छाया का अभिप्राय है प्रेम का बाह्य लक्षण – जो प्रेमी के शरीर अथवा उसकी चेष्टा द्वारा प्रकट होता है। बाह्य चेष्टा को देखकर भी किंचित् अनुमान किया जाता है हृदयस्थ भावों का – पुष्पवाटिका में सखी के शरीर में रोमांच, आँखों में अश्रु देखकर अन्य सखियों ने अनुमान कर लिया था। यदि इसी प्रकार श्री भरत की छाया का स्पर्श करना चाहें, तो वह भी सम्भव नहीं है। छाया तो पड़ती है। अभिप्राय यह है कि सात्त्विक भावों का उदय तो शरीर में होता है।
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