धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
वह सुधा भी विशिष्ट ही है। “सुधा ससि सारू”। साधारण सुधा का पान करके देवगण निर्भीक हो गए, किन्तु उसके साथ ही उनमें उन्मत्तता आई और दैत्यों का नाश करके भोगवासना में लग गए। साथ ही यह सुधा ईर्ष्या का भी कारण बन गई। देवगण इसे दूसरे को नहीं देना चाहते थे और इसके लिए बड़े-बड़े संग्राम हुए। किन्तु चन्द्रमा में रहने वाला अमृत लोक-कल्याणकारी है। वनस्पतियों को शक्ति प्रदान करता है। सन्तप्तों को शीतलता का दान देता है और अपनी सुधा-वृष्टि सब जीवों पर समान रूप से करता रहता है मानो यह सुधाकर ‘सन्त’ है –
शरदातप निशि शशि अपहरई।
संत दरश जिमि पातक टरई।।
इसी प्रकार भरत स्नेह व्यवहार भी “शशि-सार-सुधा” है। अखिल लोक-कल्याणकारी है। विषय-ताप-सन्तप्त जनों को भक्ति की शीतलता का दान देता है। साधक रूप वनस्पतियों को पुष्टि दान देता है और चकोर रूप सिद्धों को आह्लाद का दान।
इस प्रकार मन-ही-मन श्री भरत के सुयश की सराहना करने के पश्चात् वे अपने नेत्र खोलते हैं और देवी सुनयना को सम्बोधित करके भरत-यश कहना प्रारम्भ करते हैं –
सावधान सुनु सुमुखु सुलोचनि।
भरत कथा भव बंध बिमोचनि।।
‘सुमुखि सुलोचनि’ भी यहाँ साभिप्राय है। तुमने भरत की चर्चा की इसलिए ‘सुमुखि’ हो, और नेत्रों से भरत जैसे प्रेमी का दर्शन किया, इसलिए ‘सुलोचनि’ हो। यही इनका अभिप्राय जान पड़ता है। उसके पश्चात् महाराज ने जो शब्द कहे हैं, वे बड़े ही महत्वपूर्ण हैं अतः संक्षेप में सब पर कुछ स्पष्टीकरण करना आवश्यक जान पड़ता है।
|