धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
पुनः गुरुदेव के द्वारा भगवान् के प्रति “शिष्यार्पण” है। उसके बाद श्री भरत का वह भाषण है, जिसमें उनकी समस्त व्यथा, जिस कारण वे प्रभु को वन से लौटाना चाहते हैं, का व्यक्तीकरण है। किन्तु अब भी अपनी इच्छा, अपना विचार शेष है। इसके पश्चात् प्रभु द्वारा प्रशंसा मानो ‘शरणागत की स्वीकृति’ है। वे उसे अपना स्वीकार करते हैं। और प्रेमी की इच्छा पर सब कुछ करने को प्रस्तुत हैं। किन्तु श्री भरत का अन्तिम भाषण बताता है कि साधना की चरम स्थिति तब है, जब प्रेमी में अपनी कोई इच्छा शेष न रहे। मानो “सर्वात्मना समर्पण” हो गया। अब वह प्रभु से भी यही कहता है कि आप जो कहें वही हो–
मालिक तेरी रजा रहे औ तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।
इस दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी भाषण अपने आप में पूर्ण होते हुए भी साधना और विकास की दृष्टि से हमें ‘नैराश्य’ से ‘आत्मसमर्पण’ तक ले जाते हैं। इस प्रकार श्री प्रेममूर्ति का आचरण लोकसंग्रह के निमित्त न होते हुए भी लोकसंग्रह बन जाता है। उनका भाषण उपदेश के लिए न होते हुए भी परमोपदेश बन जाता है। प्रेममूर्ति श्री भरत का सहजाचरण साधक के लिए सर्वोत्कृष्ट साधन पद्धति है और सिद्ध के लिए पूर्ण प्रेम का प्रतीक है। जीवन का कोई पवित्र अंग ऐसा नहीं है, जिस पर भरत-चरित्र से प्रकाश न पड़ता हो।
श्री भरत का भाषण समाप्त होते ही देवता आकाश से पुष्पवृष्टि करने लगे। चारों ओर से साधु-साधु की ध्वनि गूँजने लगी। प्रेमी ने ‘स्वसुख’ का सर्वथा बलिदान करके विश्व की रक्षा कर ली। यह सोचना स्वार्थी देवताओं के लिए असम्भव था कि वे ऐसा करेंगे। भगवान् राम के ऐसा कह देने पर “भरत कहें सोइ किए भलाई” पर देवता काँप उठे थे। किन्तु वे क्या जानें इस रस रहस्य को। “भगवतरसिक – रसिक की बातें, रसिक बिना कोउ समुझि सके ना।”
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