धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
यमुना-गंगा की गौर धारा को देखकर प्रभु की ही स्मृति इस स्थिति का सूचक है जब मानो प्रत्येक वस्तु प्यारे की स्मृति का कारण बने। तीर्थराज से की गई याचना प्रेमी हृदय की “निष्कामता” का सूचक है–
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।
महर्षि भरद्वाज के समक्ष का भाषण “अनुरागी हृदय” की भावनाओं को व्यक्त करता है। उसका अपना दुःख कुछ नहीं, वह केवल प्रभु के दुःख से दुःखी है –
लखन राम सिय बिनु पग पनही।
करि मुनि वेष फिरहिं बन बनही।।
एहि दुख दाह दहत नित छाती।
भूख न बासर नींद न राती।।
किन्तु अभी उस दुःख निवृत्ति का उपाय वह स्वयं खोज रहा है। चित्रकूट के आश्रम में गुरु वसिष्ठ के समक्ष का भाषण उनकी अविचल ‘गुरु निष्ठा’ का सूचक है। उसमें साध्य का निर्णय होने पर भी साधन के लिए गुरु में ही विश्वास है –
पूछिय मोहि उपाय अब सो सब मोर अभागु।
में साधना के विषय में “गुरुचरणाश्रय” की सूचना मिलती है। यहाँ साधक को पूर्ण विश्वास है कि गुरुदेव का निर्देश ही उचित होगा। गुरुदेव द्वारा उपाय बताए जाने पर हर्षपूर्ण दूसरा भाषण उनके गुरु द्वारा बताए गए साधनों पर “अचल निष्ठा” का सूचक है –
जौ फुर कहहु तो नाथ निज कीजिए बचन प्रमान।।
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