धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
उस “घोर नैराश्य” में फिर आशा का उदय होता है, सन्तहृदया कौशल्या अम्बा के यहाँ जाने पर। वहाँ जाने पर उन्हें जो अगाध वात्सल्य मिला, जिस विश्वास से वे मिलीं, वह सहारा देता है। मानो “नैराश्य” के घोर अन्धकार में प्रकाश का उदय हुआ। उसके पश्चात् भरत मुख से जो वाणी निकली, वह साधक की निश्चलता का सन्देश देती है। उनकी शपथ पवित्रता की प्रेरणा देती है। सपथ के द्वारा उन्होंने धर्म का ही उपदेश दिया।
इसके पश्चात् अयोध्या की राज्यसभा का भाषण “उत्कट वैराग्य” से ओत-प्रोत है। जहाँ सभी लोग राज्य की प्रलोभन देना चाहते हैं, किन्तु उस अविचल व्रती का विवेक जाग्रत है –
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।
वह समस्त प्रस्तावों को ठुकरा कर “प्रभु दर्शन” का निर्णय करता है।
मार्ग में मिलनेवाली गंगा से भी वह भक्ति की याचना करता है। “निज निज धर्म निरत श्रुति रीती” का पालन तो हो ही रहा है, मातृ-चरणों की सेवा, आज्ञा-पालन आदि से। निषादराज के समक्ष भरत मुख से निकली हुई वाणी में “दैन्य प्रियत्वाच” महर्षि नारद के वचनों का यहाँ पूर्ण निर्वाह होता है –
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी।
सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।।
यह उसके “दैन्य” का स्वरूप है। आगे चलकर सेवकों के समक्ष कही गई बात “सेवक-धर्म” की जागरूकता का प्रमाण है।
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