धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सर्व-भावेन आत्मसमर्पण का इससे उत्कृष्ट दृष्टान्त मिलना कठिन है। इससे पूर्व श्री भरत जी के श्रीमुख से अनेकों बार स्नेहपूरित भाषण हुए। किन्तु यह कहना अनुचित न होगा कि उनमें भी यह साररूप है। यदि हम ध्यान से देखें तो जैसा पूर्व में कहा जा चुका है कि वे सिद्ध होते हुए भी साधक का-सा आचरण करते हैं। उसी के अनुकूल उनके भाषण में विकास है। यद्यपि वे सहज स्नेही है। किन्तु हम चाहें तो उनके प्रारम्भ से लेकर अब तक के भाषणों से साधना का एक क्रम भी निकाल सकते हैं।
सबसे पहले व्यथाभरी वाणी में वे कैकेयी अम्बा से जो कुछ कहते हैं, उसमें ‘नैराश्य’ का घोर चित्र अंकित है। मानो वह साधना का श्री गणेश है। जहाँ साधक को प्रतीत होता है कि संसार विश्वस्त नहीं है। चारों ओर से उसे निराशा ही निराशा प्राप्त होती है। माँ की ओर देखते हैं. तो निराश होकर कहते हैं –
जननी तू जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।
पिता के कार्यों पर ध्यान गया तो निराशा।
भूप प्रतीति तोरि किमि कीन्ही।
मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।।
अपनी ओर से भी नैराश्य –
राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तेहि।।
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