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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


इस पृष्ठभूमि पर ही भरत भाषण का किंचित् महत्व हम हृदयंगम कर सकते हैं। गोस्वामी जी के शब्दों में ही उस भाषण का आनन्द लीजिए –

स्वारथु  नाथ  फिरें  सबही का।
किएँ रजाइ कोटि बिधि  नीका।।
यह   स्वारथ   परमारथ  सारू।
सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू।।
देव एक विनती सुनि मोरी।
उचित होइ तस करब बहोरी।।
तिलक  समाज साजि  सबु आना।
करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।
दो. – सानुज पठइअ मोहि बन कीजिए सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ।।

नतरु  जाहिं  बन  तीनिउ भाई।
बहुरिअ  सीय  सहित  रघुराई।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई।
करुना  सागर  कीजिअ  सोई।।
देवँ  दीन्ह  सब  मोहि अभारू।
मोरे  नीति  न  धरम बिचारू।।
कहउँ  बचन सब  स्वारथ हेतु।
रहत  न आरत कें  चित चेतू।।
उतरु देइ  सुनि स्वामि रजाई।
सो  सेवकु लखि लाज लजाई।।
अस मैं अवगुन उदधि  अगाधू।
स्वामि  सनेहँ  सराहत  साधू।।
अब कृपालु मोहि सो मत भावा।
सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा।।
प्रभ पद  सपथ कहउँ सति भाऊ।
जग  मंगल  हित  एक  उपाऊ।।
दो. – प्रभु प्रसन्न मन  सकुच  तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि-धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।

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