धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
निषादराज :
जो पै जिय न होत कुटिलाई, तौ कत संग लीन्ह कटकाई।
श्री लक्ष्मण :
कुटिल कुबन्धु कुअवसर ताकी, जानि राम बनवास एकाकी।
प्रभु द्वारा प्रदत्त शाप से दोनों ही प्रेमी भी संकुचित हुए होंगे। इसलिए राघव ने भरत स्तुति में ही उन लोगों की भूल का प्रायश्चित भी बता दिया –
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।
मानो इसके द्वारा संकेत करते हैं कि तुम दोनों को श्रद्धा से भरत नामोच्चारण कर लेना चाहिए।
प्रभु का ज्ञान अनन्त हैं, अपरिच्छिन्न हैं। उन्होंने घोषणा कर दी कि तीनों काल और त्रिभुवन में जो पुण्यश्लोक हैं या होंगे, वे तुमसे नीचे हैं। और कोई भी तुलनात्मक अध्ययन करने वाला इससे असहमत न होगा। इसमें मुझे रंचमात्र संदेह नहीं कि पुण्यश्लोक नल, युधिष्ठिर आदि के जीवन में ऐसे क्षण आए, जब वे धर्म से विचलित हुए। पर भरत के जीवन में चाहे जितनी सूक्ष्म समालोचना कीजिए – कहना ही पड़ेगा–
कहइ काहँ छल छुवत न छाँही।
दूसरे खण्ड में राघवेन्द्र अपनी मनःस्थिति का विश्लेषण कर देते हैं। “पूज्य पिताजी ने मुझे छोड़कर धर्म की रक्षा की और शरीर त्याग कर प्रेम की। ऐसे महान् त्यागी की आज्ञा का उल्लंघन करने में मुझे शोक होगा। किन्तु तुम्हारा संकोच उनकी अपेक्षा भी अधिक है।”
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