धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
तीसरे खण्ड में बड़ी सरलता से भगवान् भरत के समक्ष आत्मसमर्पण कर देते हैं –
मगु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहुँ करौं सोइ आजु।
इस प्रकार भक्तवत्सल प्रेम-पराधीन प्रभु ने अपने श्रीमुख से भक्त महिमा का ख्यापन करते हुए अपनी कृपालुता का परिचय दिया। कौशलेन्द्र के इस अप्रत्याशित निर्णय से पुरवासियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही भरत महिमा भी हृदयंगम होने लगी। आज पुरवासियों ने जाना प्रेम और प्रेमी का महिमा को। श्रद्धा से नत हो गया उनका मस्तक भरत चरणों में।
इसमें सन्देह नहीं कि पुरवासियों की प्रसन्नता का कारण यही था कि मन में पूर्ण निश्चय हो गया कि भरत लौटने की प्रार्थना करेंगे। किन्तु महदाश्चर्य कि श्री भरत ने ऐसा नहीं किया। कुछ लोग तो आज भी उनके व्यवहार को समझने में असमर्थ हो जाते हैं। समझना है भी कठिन, क्योंकि जो व्यक्ति सर्वसम्म्त राज्य के प्रस्ताव को अस्वीकार कर चुका हो, जो राघवेन्द्र को राज्याभिषिक्त करने का दृढ़ निश्चय लेकर वन में आया हो, इतना ही नहीं अभिषेक की सामग्री भी साथ लाया हो। वह इस सुअवसर से जो उसे राघव ने दिया, लाभ न उठावे। साधारणतया यह आश्चर्य की घटना प्रतीत होती भी है। तब फिर श्री भरत ने ऐसा क्यों किया।
श्री भरत की विचारधारा को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम जान लें कि वे प्रभु को क्यों ले जाना चाहते हैं? क्या अपने ऊपर आये हुए कलंक का प्रक्षालन करने के लिए? कदापि नहीं। क्योंकि वे तो “जानउँ राम कुटिल कर मोही, लोग कहउ गुरु साहिब द्रोही” की स्वयं याचना करते हैं।
|