धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
समस्त भाषण को हम तीन खंडों में विभक्त कर सकते हैं। सबसे विस्तृत है भरत स्तुति-खण्ड। इसमें प्रभु ने अयोध्या या अन्य स्थलों में प्रदर्शित दैन्य का खण्डन किया। तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
श्री भरत का कथन
1. मो समान को पाप निवासी,
जेहि लगि सीय राम बनवासी।
2. जानि कुटिल किधौं मोहि बिसराए
3. मोहि हठि राज देइहउ जबहिं
4. रसा रसातल जाइहिं तबहिं
प्रभु का कथन
1. तीन काल तिभुअन मत मोरें,
पुन्यसिलोक तात कर तोरें।
2. उर आनत तुम पर कुटिलाई।
जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
3. कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी।
4. भरत भूमि रह राउरि राखी।।
भरत स्तुति के प्रसंग में प्रभु ने शाप और वरदान दोनों दिया। तुम में कुटिलता का सन्देह करने वाले व्यक्ति का लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाएँ। यह शाप देने के पश्चात् प्रभु चौंक पड़े, क्योंकि इसका प्रभाव दो महत्प्रेमियों पर पड़ता है। ‘निषादराज’ और ‘श्रीलक्ष्मण’ दोनों ने ही कुटिलता का आक्षेप श्री भरत पर किया है –
|